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दुर्जन की दुर्जनता का परिणाम – result of the wickedness of the wicked

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दुर्जन की दुर्जनता का परिणाम

दुर्जन को झट मार दो, कहते चतुर सुजान।
इनके मारे पुण्य है कहते श्री भगवान॥

एक दुष्ट आदमी अपने ग्राम से निकलकर एक निर्जन वन में जाकर एक जंगली उजाड़ मार्ग के पास दीन मलिन अवस्था में पश्चात्‌ पूर्वक सिर घुमता हुआ बैठ गया। कुछ दिनों बाद उसी मार्ग से 200 व्यक्तियों का एक दल तीर्थ यात्रा हेतु निकला। उन सबने इस दुष्ट व्यक्ति को घोर जंगल में अकेला बैठा हुआ देखकर पूछा -हे भाई! तुम इस भयंका बन में अकेले बिना अस्त्र-शस्त्र के क्‍या कर रहे हो? तुफारे अन्दर वैराग्य के लक्षण भी दिखाई नहीं दे रहे हैं क्योंकि बैरागी व्यक्ति का इतना दीन हीन मलीन मुख नहीं होता। बैरागी का मुख तो हमेशा प्रसन्न और चन्द्रमा के समान शोभायमान दिखाई देता है। ऐसा मालूम होता है कि तुम स्त्री, पुत्र, धन आदि से विमुख होकर यहाँ बैठे हो या किसी शत्रु के सताये हुए हो। बताओ तो सही तुम किस मुसीबत के मारे इस संकटमय बन में आये हो और अब तुम क्या चाहते हो? उन लोगों को बात सुनकर वह दुर्जन बोला–मैं कोई त्यागी या वैरागी नहीं हूँ। न ही मुझे कोई धन सम्पत्ति, स्त्री-पुरुष आदि को हानि हुई है। न ही किसी शत्रु ने मुझे पीड़ित किया है और न राजा ने मुझे सताया है।

 मुझे तो मेरे स्वभाव ने ही मुझे यहाँ पहुँचाया है। देखो यह मार्ग कितने ही वर्षो से बन्द पड़ा था। इसका कारण यह था कि यहाँ अनेक हिंसक पशु–शेर, व्याप्र, रीछ आदि रहते थे। जो भी इधर से गुजरता था उसे हिंसक पशु मारकर खा जाते थे। परन्तु अब कुछ दिनों से यह रास्ता फिर से चलने लगा है। इससे पता चलता है कि अब हिंसक पशु यहाँ नहीं रहे हैं। उनकी जगह नये-नये पशु यहाँ रहते होंगे, जो हिंसक नहीं होंगे। इन नवीन पशुओं को मनुष्य का मांस खाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ होगा। इसलिए वे मनुष्यों को अपना भोजन न मानकर डरकर भाग जाते होंगे। यदि एक बार भी उनके मुँह को मनुष्य का मांस व रक्त लग जाये तो वह भी पहले हिंसक पशुओं की तरह नर हत्या करने लगेंगे। बस इसी कारण से मैं यहाँ आया हूँ। मैं यहाँ जंगल में रहूँगा तो जो सिंह, व्याप्र आदि यहाँ आयेंगे तो मैं उन्हें छेडूँगा ताकि वे मुझे मारें और मेरा मांस खायें तथा रक्तपान करें। उनके मुख को मनुष्य के रक्त का स्वाद लग जायेगा तो वे फिर से मनुष्यों को मारकर खाने लगेंगे। यह हिंसा पुनः पुनः होती रहे। बस इसी कारण से मैं यहाँ आया हूँ। मैं यहाँ जंगल में रहूँगा तो जो सिंह, व्याप्र आदि यहाँ आयेंगे तो मैं उनको छेड़ँगा, जिससे वह मुझे मारें और खावें। उनके मुख को मनुष्य का रक्त रास आ जाये तो वह और मनुष्यों को भी मारकर खाया करेंगे।

बस मैंने यह सोचा है कि अपने प्राण जायें तो चले जायें पर भविष्य में हिंसा होने लग जाये । उस दुष्ट व्यक्ति की बात सुनकर सब लोग चकित रह गये और बोले-भाई ! यह स्वाभाविक रूप से दुष्ट है। अरे यह तो आतताई है। किसी ने सच कहा है कि मक्खी आप मरे औरों को मारे, लो इस दुष्ट को क्‍या सूझी है। इस पापी को मारने से बहुत सी आत्माओं का उद्धार होगा। आओ इस दुर्जन को खत्म कर डालें। इतना बोलकर उन लोगों ने इस दुष्ट को मार डाला।

बन्धुओं! हिंसक प्राणियों का संसार से वध कर देना ही उत्तम है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को आतताइयों को मारने का उपदेश दिया था। आतताई उसे कहते हैं जो घर में आग लगाने वाला, विष देने वाला, शस्त्र हाथ में लेकर मारने आने वाला, धन को हरण करने वाला, भूमि का हरण करने वाला और स्त्री का अपहरण करने वाला यह छः प्रकार के आततायी होते हैं। ऐसे आततायी को बिना विचारे ही मार देना चाहिए। इसमें मारने वाले को कोई पाप नहीं लगता। कौरवों में भी आततायी के ये छ: ही लक्षण मिलते हैं। इन लोगों ने लाक्षाग॒ह में आग लगाई थी, भीम को विष दिया था, अस्त्र लेकर लड़ने आये थे, धन और भूमि का हरण कर लिया था और द्रोपदी के वस्त्र हरण आदि द्वारा स्त्री हरण कार्य भी किये थे। इस दशा में ऐसे आतताइयों, दुर्जनों एवं दुष्टों को आर्य शास्त्र के अनुसार इनको मार देने में कोई पाप नहीं लगता।
अग्लिदो गरदश्चैव शरत्रपाणि धनापह:।
क्षेत्र हरश्चैव षडेत ह्यातितायिन:॥
साततामिलायान्त हन्यादेवाडविचारयन्‌ |
नाडडततायि वधे दोषी हन्तुभवति कश्चन्‌॥

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