कबीर राग पीलू दिलचन्दा १३१
सन्तो ! सो सत मोहिं भावै,
जी आबगमन मिटावै। टेक
डोलत डिग वे बोलत बिसरे,
उस उपदेश सुनावे।
बिन श्रमहठ किरिया से न्यारी,
सहज समाधि लगावे।
द्वार निरोध वचन नहिं रोके,
नहिं अनहद उनभावै।
कर्म करे सच्चा रहे अकर्मी,
ऐसे युक्ति बतावै।
सन्तो ! सो सत मोहिं भावै,
जी आबगमन मिटावै। टेक
डोलत डिग वे बोलत बिसरे,
उस उपदेश सुनावे।
बिन श्रमहठ किरिया से न्यारी,
सहज समाधि लगावे।
द्वार निरोध वचन नहिं रोके,
नहिं अनहद उनभावै।
कर्म करे सच्चा रहे अकर्मी,
ऐसे युक्ति बतावै।
सदा आनन्द फन्द से न्यारा,
भोग में योग सिखावै।
तजि धरती आकाश अधर में,
प्रेम मड़ैया छार्व।
ज्ञान शिवरी की मुक्ति शिला पर,
आसन अचल जगावै।
अन्दर बाहर एकहि देखे,
दूजा भाव मिटावै।
कहै कबीर सोई गुरु पूरा,
घट विच अलख जगावै।
तजि धरती आकाश अधर में,
प्रेम मड़ैया छार्व।
ज्ञान शिवरी की मुक्ति शिला पर,
आसन अचल जगावै।
अन्दर बाहर एकहि देखे,
दूजा भाव मिटावै।
कहै कबीर सोई गुरु पूरा,
घट विच अलख जगावै।