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कबीर भजन राग बागेश्वरी १३५

कबीर भजन राग बागेश्वरी १३५
सन्तो ! जीवित ही करूं आशा। टेक
ये मुक्ति गुरु कहे स्वास्थ,
मंडी दैविश्वासा !
जीवित समझे जीवित बूझे,
जियत होत भ्रम नाशा ।
जियत जो भये मिले तेहि,
है मुक्ति निवासा ।
मन हो बन्धर मन ही से मुक्ति,
मन ही सकल बिन साया।
जो मन भयो जित वश में नहीं,
तो दैवे बहुचासा।
जो अब है सो तबहूं मिलिहैं,
जा सपने जग भाषा।
जहां आशा तहां यासा होवे,
मन का यही तमाशा ।
जीवन होय दया सतगुरु की,
घट में ज्ञान प्रकाशा ।
कहै कबीर मुक्ति तुम पाषा,
जीवन हौ धरम दासा । 
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