कबीर दादरा मन की दवा- १०३
कैसे समझाऊं में, न माने मेरी बात रे।
वह मन मूढ़ मधुर अमृत
तजि भटकि विष फल खात
इक मन पहुंथिर रहत न
कैसे समझाऊं में, न माने मेरी बात रे।
वह मन मूढ़ मधुर अमृत
तजि भटकि विष फल खात
इक मन पहुंथिर रहत न
कबहूं सटकि-सटकि चहुंदिशि जात जो नही
जो मैं रोक तनक कहूं राखो
जो मैं रोक तनक कहूं राखो
पटकि-२ अति अकुलात
कहै कबीर सन्त मेटत हो
हटकि याकी सब उतपात