एक पत्नी व्रत धारी पुरुष
शत्रु सेना लगातार छः महीने से भयंकर युद्ध करती हुई विजय की ओर बढ़ रही थी परन्तु वीर राजा वीरेन्द्र सिंह अकेला हजारों छोटे मोटे घावों के लग जाने पर भी शत्रु सैनिकों का सफाया करता जा रहा था। यह देखकर शत्रु सेना के सेनापति को बड़ा क्रोध आया और उसने अपने सिपाहियों का एक साथ मिलकर वीर वीरेन्द्र सिंह पर हमला करने के लिए कहा।
आज्ञा मिलते ही तमाम सैनिक मधु मक्खियां की भांति उस वीर योद्धा पर टूट पड़े। परन्तु ईश्वर की कृपा से उस वीर ने वर्षा की बूंदों की तरह की झड़ी लगाकर शत्रु सेना को थोड़े ही समय में तहस नहस कर डाला और उसके सेनापति को भी कैद कर लिया।
इस पर सेनापति ने हाथ जोड़कर वीर राजा वीरेन्द्र सिंह से कहा – आपके पास ऐसी कौन सी अपार देवी शक्ति है जिसने मेरे असंख्य वीरों को भूमि चटाकर आपको विजय दिलाई है।
यह सुनकर वीर वीरेन्द्र सिंह ने मुस्कराते हुए कहा – हे सेनापति! मेरे अन्दर वह दैवी शक्ति भरी हुई है जो तुम्हारी जेसी हजार सेनाओं पर भी विजय प्राप्त कर सकती है। सुनो वह शक्ति है पत्नी व्रत धर्म अर्थात् मैं अपनी पत्नी को छोड़कर संसार की समस्त नारियों को माँ बहिन की दृष्टि से देखता हू।
उनको मैं कभी खोटी दृष्टि से नहीं निहारता तथा जहां तक मुझ से बन पड़ता है में अपनी पत्नी को अपनी किसी बात से कष्ट नहीं होने देता। बस यही मेरे शरीर के अन्दर सबसे अपार दैवी शक्ति है जो हजारों शत्रुओं के होते हुए भी मुझे कभी पराजय का मुख देखना नहीं पड़ता। वीर वीरेन्द्र की बातें सुनकर सेनापति निरुत्तर हो गया और अपने जीवन को भी उसी प्रकार व्यतीत करने लगा।