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अनन्य भक्त

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अनन्य भक्त 

प्राचीन काल में एक शहर में एक धर्मात्मा वैश्य रहता था। यद्यपि इस जन्म में उसने किसी भी पणी को कष्ट नहीं पहुँचाया था, परन्तु वह नि:सन्‍्तान था। सन्तान न होने के कारण वह बहुत दुःखी रहा करता था। – 
एक दिन उसके यहाँ नारद ऋषि पधारे। उनके दर्शनों से वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सम्मान पूर्वक नारदजी की पूजा वंदना की। ततूपश्चात्‌ नारद जी ने उससे कुशल समाचार पूछे । 
वैश्य ने हाथ जोड़कर कहा–ऋषिवर! आपकी कृपा से और तो सब कुशल हैं परन्तु मेरे कोई सनन्‍्तान नहीं है। कोई सन्‍्तान होने का उपाय बताने की कृपा करें। क्‍ 
वैश्य की बात सुनकर नारद जी ने उसका हाथ देखा और थोड़ी देर सोच विचार कर उदास मन से बोले–सेठजी! आपके इस जन्म में ही नहीं अपितु सात जन्मों तक-संतान का मुख देखना नहीं लिखा। 
नारदजी की बात सुनकर सेठजी सब्र का घूँट भरकर  रह गये । कुछ समय खाद नारदजी लीएा खजाते हुए. अल्े ऐ गये। । एक दिन स्ेठानी ने संध्या समय सुना व्कि एक साधू ) ‘ज्जोरजोर से चिल्तना रहा है, कोई एक रोटी दे तो एक खेटा, ‘ दो रोटी दे तो दो ब्लेटे, तीन रोटी दे तो तीन खेटे और चार | रोटी दे तो चार बेटे उसे भगवान देगा। इस प्रकार कहता ‘ छुआ वह स्ताधू गली में से होकर जा रहा था। लैसे तो स्ेठानी को नारदजी के कहे अनुसार संतान की ‘व्कफोई आशा नहीं थी परन्तु फिर भ्वी उसने घर से बाहर निकल ‘ व्कर साधू व्कलो चार रोटियाँ भेंट कर दीं । रोटियाँ त्लेकर साधू , ‘ आशीर्वाद देता हुआ चलता गया। ल्‍ इसक्के वाद साधू के आशीर्वाद स््रे और भगवान की ‘ ‘ ‘वकक्पा से कुचछ् ही समय में एक के व्वाद एक च्चार ल्वेटे सेठानी ( व्के उत्पन्न छो गये ॥ एक दिन उसके चारों लेटे आँगन में रस्वेल ( , रहे थे और उनको स्वेलते देखकर स्वेठ और स्वेठानी अपने ‘ छहदय में फूले नल समा रहे शे॥ , .:. । ै सती स्रमय कहीं से घूमते छुए नारदजी व्वीणा लजाते हुए , , आ पहुँचे | उनकी दृष्टि सेठजी न्फे आँगन में चारों जात्लकों पर ‘ ‘ पड़ी तो लह टिस्मित होते हुए स्लेठजी से पूछने त्लगे —–सेठजी ! ( ये जालकं किसके हैं? :. ह सेठजी ने उत्तर दिया—भगवन ! आपके आशीर्वाद से ओे मेरे च्चयार लेटे हें । 9… . … . ै यह स्ुलकर वि्कि सेठजी के एक दो नहीं अपितु चार’ चआवार पुत्र आंगन में स्वेलते हुए देख्यचककर नारद जी क्लो न केवल अपने पर लखल्कि अपनी चुद्द्धि पर, अपनी तपस्या पर और , स्वाथ ही डलिण्णु भगवान पर भी हक्रोध्य चव्ठह आजाया। नारदजी ‘ उसी समय स्वेठजी के बहुत आग्रह पर भरी रूकने व्क बजाय ; लैकुण्ठ को चले गये। भगवान लिण्ण जी ने खिचार व्किया व्कि नारदजी क्रोध ) रह गये । कुछ समय खाद नारदजी लीएा खजाते हुए. अल्े ऐ गये। । एक दिन स्ेठानी ने संध्या समय सुना व्कि एक साधू ) ‘ज्जोरजोर से चिल्तना रहा है, कोई एक रोटी दे तो एक खेटा, ‘ दो रोटी दे तो दो ब्लेटे, तीन रोटी दे तो तीन खेटे और चार | रोटी दे तो चार बेटे उसे भगवान देगा। इस प्रकार कहता ‘ छुआ वह स्ताधू गली में से होकर जा रहा था। लैसे तो स्ेठानी को नारदजी के कहे अनुसार संतान की ‘व्कफोई आशा नहीं थी परन्तु फिर भ्वी उसने घर से बाहर निकल ‘ व्कर साधू व्कलो चार रोटियाँ भेंट कर दीं । रोटियाँ त्लेकर साधू , ‘ आशीर्वाद देता हुआ चलता गया। ल्‍ इसक्के वाद साधू के आशीर्वाद स््रे और भगवान की ‘ ‘ ‘वकक्पा से कुचछ् ही समय में एक के व्वाद एक च्चार ल्वेटे सेठानी ( व्के उत्पन्न छो गये ॥ एक दिन उसके चारों लेटे आँगन में रस्वेल ( , रहे थे और उनको स्वेलते देखकर स्वेठ और स्वेठानी अपने ‘ छहदय में फूले नल समा रहे शे॥ , .:. । ै सती स्रमय कहीं से घूमते छुए नारदजी व्वीणा लजाते हुए , , आ पहुँचे | उनकी दृष्टि सेठजी न्फे आँगन में चारों जात्लकों पर ‘ ‘ पड़ी तो लह टिस्मित होते हुए स्लेठजी से पूछने त्लगे —–सेठजी ! ( ये जालकं किसके हैं? :. ह सेठजी ने उत्तर दिया—भगवन ! आपके आशीर्वाद से ओे मेरे च्चयार लेटे हें । 9… . … . ै यह स्ुलकर वि्कि सेठजी के एक दो नहीं अपितु चार’ चआवार पुत्र आंगन में स्वेलते हुए देख्यचककर नारद जी क्लो न केवल अपने पर लखल्कि अपनी चुद्द्धि पर, अपनी तपस्या पर और , स्वाथ ही डलिण्णु भगवान पर भी हक्रोध्य चव्ठह आजाया। नारदजी ‘ उसी समय स्वेठजी के बहुत आग्रह पर भरी रूकने व्क बजाय ; लैकुण्ठ को चले गये। भगवान लिण्ण जी ने खिचार व्किया व्कि नारदजी क्रोध ‘ 
में दौड़े-दौड़े आयेंगे, इससे अच्छा यह होगा क्कि दूर से छी उनका ह्कोध्यथ शानत वक्लर दिया ज्ञाये | 
यह स्तनोचकर ये शोष शाय्या पर त्नलेट गये और इतने में ही नारदजी साथे पर त्यौरी चकढ़ाये हुए जेसे ही वहाँ पहुँचे त्योहि हाय! हाय ! जड़ा दर्द है। इस प्रकार कहते हुए कराहने ल्नगे । 
भगवान ठदिष्णु को अपने पेट को मस्लकरर हाय ! हाय ! व्ॉऔरते हुए देख्यकर नारदजी काका क्रोध छक्षण भर में शांत हो गया और वे नम्नता से पूछने ललगे-. भगवन ! क्या हालत हे? आप क्यों कराह रहे हैं? किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो सेवक हाजिर है। । | 
नारदजी व्की लात सुनकर दिष्णु भगवान कराहते हुए बोले—देवर्थि! पेट में भयंकर दर्द हो रहा है। यदि शीक्य चिकित्सा न की गई तो दर्द सम्पूर्ण शरीर में फैल जायेगा आओऔर बहुत दिन कष्ट उठाना पड़ेगा ॥ इस्त्लिए शीघ्र ही इसका ऊपाय करना चआआाहिए ।॥ नारदजी ने कहा-भगवयन ! में अभ्यी लैद्यराज थध्न्वन्तरि को बुलाकर ल्नाता हूँ। विष्णाजी ने मना करते हुए कहा–नहीों देवर्थि! ध्न्वन्तरि के पास ज्जाने से काम नहीं चलेगा। |॒ 
विस्मय करते हुए नारदजी ने कहा—-तो फिर क्या करना चाहिए? 
. विष्णु भगवान बलोले—आप एक कहटोरा हाथ में ले 
जाइये और जो भक्त प्रसन्नतापूर्वक अपने हृदय का रक्त दे सके उसका रक्त इसमें भरकर ले आइये | उस रक्त का पेट पर लेप कररते ही मेरा दर्द दूर हो जायेगा। मेरे पेट के दर्द व्को दूर करने की एक सात्र यही औषधि है ॥ इस ऊपाय से पहले भी कई ज्वार लाभ्य हो चुका है। देवर्थि! शीघ्रता कीजिए, नहीं तो दर्द के कारण मैं बेहोश हो जाऊँगा। 
भगवान विष्णु की यह जात सुनकर नारदजी एक कटोरा लेकर वहाँ से चल दिये । नारदजी जिस किसी साधु, सन्‍यासी, बैरागी, मठाधीश और नामधारी भक्त कहलाने वाले व्यक्ति के पास जाते थे तो वह उन्हें पागल समझकर यह कहते हुए टाल देता था कि आया है कहीं से कलेजे का खून लेनें। यदि तुम्हें विष्णु भगवान से इतना ही प्रेम था तो वहीं अपने हृदय का रक्त क्‍यों नहीं दे दिया । क्या हमारा शरीर काष्ट का. है जो तुम्हें रक्त दे दे? इस प्रकार भक्त जानकर नारदजी जहाँ कहीं जाते वहीं पर उन्हें तरह-तरह की बातें सुनाकर पागल कहकर भगा देते थे। द अंत में नारदजी एक मंदिर में पहुँचे जहाँ पर अनेकों भक्त रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम को ‘ धुन लगाकर झांझों से मस्त हो रहे थे। | .. यद्यपि नारदजी को वहाँ बहुत सा रक्त मिलने की | संभावना थी परन्तु वहाँ भी उन्हें वही उत्तर मिला जो इससे ‘ पहले कई बार मिल चुका था। नारदजी निराश होकर खाली कटोरा हाथ में लिए । विष्णुलोक में लौट ही रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक साधू धूनी | लगाए हुए भगवान के ध्यान में सग्न थे दिखाई दिये।नारदजी ) को उससे रक्त मिलने की स्वप्न में भी आशा नहीं थी परन्तु फिर भी उन्होंने उससे अपना अभिप्राय कह देना उचित समझा। |. नारदजी ने उसके पास जाकर कहा-हे मछत्मन्‌! विष्णु । भगवान के पेट में दर्द हो रहा है। उन्होंने मुझसे प्रसन्नता ‘ पूर्वक प्रदान किया हुआ किसी भक्त के हृदय का रक्त लाने को कहा है। यदि आप अपने हृदय का रक्त दे सकें तो बड़ी कृपा होगी। नारदजी की यह बात सुनकर महात्माजी बोले–देवर्षि! यह शरीर अनित्य है और एक दिन तो यह अवश्य नष्ट होगा। यदि भगवान के हितार्थ यह शरीर काम आता है तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी। अतएवं आज्ञा करिये, केवल हृदय का रक्त चाहिए या समस्त शरीर का रक्त चाहिए। 
नारदजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा–नहीं महात्मन्‌! केवल हृदय का ही रक्त चाहिए। नारदजी की बात सुनकर वह महात्मा जैसे ही छुरी लेकर अपने हृदय में मारने चला बैसे ही भगवान विष्णुजी ने आकर पीछे से उसका हाथ पकड़ लिया। भक्त ने पीछे मुड़कर देखा तो साक्षात्‌ चतुर्भुजी विष्णु भगवान को खड़ा पाया। 
साधु भक्ति भाव में विभोर होकर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे और नारदजी विस्मित होकर उनसे पूछने लगे–भगवन्‌! आप तो पेट के दर्द से परेशान हो रहे थे, तब किस प्रकार आराम हुआ? 
नारदजी का प्रश्न सुनकर विष्णु भगवान बोले–देवर्षि! जिस सेठ के सात जन्म तक संतान होने की आशा नहीं थी, उसके चार पुत्र देखकर तुम्हें बड़ा क्रोध उत्पन्न हो गया था, बस उसी क्रोध को शांत करने के लिए और तुम्हें उन पुत्रों के देने वाले मेरे अनन्य भक्त के दर्शन कराने के लिए ही मैंने पेट के दर्द का नाटक किया था। यह वही महात्मा हैं जिन्होंने सेठ को चार पुत्र दिये हैं। जो भक्त मेरे लिए अपने प्राणों का त्याग करने में भी आगा-पीछा नहीं सोचते, यदि उनके वचनों को मैं सत्य न करूँ तो मेरी भक्ति कोई क्‍यों करेगा? 
भगवान विष्णु कुछ देर रुक और फिर कहने लगे–हे नारद! जो भक्त “’मनसा वाचा कर्मणा ” से मेरे आधीन हो जाता है, मैं हमेशा उसके वश में रहता हूं। उसकी सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करता रहता हू। 
इतना कहकर भगवान विष्णु अन्तर्ध्यान हो गये। नारद ऋषि भगवान और उनके भक्तों का गुणगान करते हुए गोलोक को चले गये। फ 
अनन्य भक्त चाहे वह साधु हो या गृहस्थ, वे ही गिने जाते हैं और उनके ही वाक्य सफल होते हैं, जो मन वचन कर्म से भगवान के आधीन हो जाते हैं। 
इसलिए प्रियजनों! हम सबको भगवान की अनन्य भक्ति करनी चाहिए। भगवान ने कहा है कि-
मन्मनाभव मदूभक्तों मद्याली मां जमस्कुरु। 
सामे पैष्यसि युक्त्वैव मात्मानं मत्परायणा 
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