Kabir ke Shabd
तूँ तो चाल सजन के देश, पीहर में क्यों इतराई हे।।
श्रवण सुनत नैन नहीं दिखत, भये शीश गत केश।
इन्द्रिय शिथिल भई कर कम्पित, आवन लगे सन्देश।।
उन को क्या सिंगार बावली, जिनके पिया प्रदेश।
पतिव्रता का धर्म नहीं, जो बदलै सो दो भेष।।
पति पति बोल बहु दिन बीते, नहीं प्रेम का लेश।
आखिर को चलना है तुझको, ना रहना बने हमेश।।
पर हित काज तजी निज देही, सहे अनेक क्लेश।
—/////———, जिन के पिया दुर्वेश।।