Kabir ke Shabd
नाम लखा दीजो, थारे पायां लागूँ।
जन्म -२ का सोया म्हारा मनवा जी।
शब्द की मार जगा दीजो।।
घट अंधियारा कुछ, सूझत नाही।
ज्ञान का दीप जला दीजो।।
विष की लहर उठें घट अंदर जी।
अमृत बूंद पिला दीजो।।
गहरी नदियां नाव पुरानी जी।
खेय के पार लगा दीजो।।
धर्मिदास री हो दाता अर्ज गोंसाईं जी।
अब की बार निभा दीजो।।