Kabir ke Shabd
गन्दी खोड़ अंधेरी तेरी रे,
बिना गुरू के ज्ञान मूर्ख क्यूँ भरमाया रे।
टेढ़ा चालै मरोड़ दिखावै, करता फिरै गुमान।
देह चलावा हंस बटेऊ, जान सकें तो जान।।
अरे गंवार हरि भक्ति बिसारी, करी जन्म की हाण।
आई जवानी तंत की बरियाँ, भूल गया ओसान।।
पीछे छोड़ दौड़ आगे को, मृग जल ज्यूँ हैरान।
कर्क कामिनी देख यूँ लीजे, ज्यूँ करकम पे श्वान।।
बार-२भज शरण गुमानी, हो रहौ धूल समान।
नित्यानन्द वे सफल फलेंगे, जिन के खेत निमाण।।