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बिचालै बैठ लेना हे सुरतां – देबाशीष दासगुप्ता कबीर अमृतवाणी

कबीर का जन्म कहां हुआ था

Kabir ke Shabd

बिचालै बैठ लेना हे सुरतां , लगना परले पार।।
सद्गुरु के दरबार में, लम्बा पेड़ खजूर।
चढ़ै तो मेवा चाख ले हे, पड़े तो चकनाचूर।।
माखी गुड़ ने खा रही हे सुरतां, गुड़ माखी नै खा।
इस लालच ने छोड़ दे हे सुरतां, लालच बुरी बला।।
सद्गुरु पतंग उड़ा रहे हे सुरतां, जाकी लम्बी डोर।
आवैगाबबूला कालका हेसुरतां, कित गुड़ियाँ कित डोर।
रामानन्द की खोज में हे, कंकड़ लड़ै कबीर।
कंकड़ बाजी हार गए हे, गए कबीरा जीत।।
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