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जर।
है।

तृष्णा के बस फिरयो दिवाना,
भाव शरण पर नहीं जाना,
छसो मति का होना रे। हे
सब खेल गंवाया,
लापन
तरुण भयो लखि त्रिया ललचायो।
वृद्धि भयो मन में पछितायो,
खोव दिये पन तीना रे। हां
नजि प्रपंच जग के चतुराई,
कहै कबीर
कहु गुरु चरण शरण सुखदाई।
सुनो तुम भाई,
है कितने दिन जीना रे। हां
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