भजन माधुरी १२५
सन्त के बस भए हरि जो,
के
लाई ।
जाति वरन कुछ जानत नाहीं।
मानत प्रेम सच्चा शिवरी जाति भीलनी होता।
बेर तोरि
प्रीत जानि वाले फल खाए तीनों लोग बड़ाई।
बिरद जी अचरज कीन्हीं हरि सो प्रीत खगाई।
छप्पर भोग त्याग के गए पहिले खिचरी खाई।
नाम देव पिया रैदास तिन सो मान मिताई।
सेष की संशय मेटयो आप भए हरि नाई।
सहस्र अठासी ऋषि मुनि होब शंख बहुत नहीं बाँज.
कहत कबीर शपच के आए शंख मगन रहे बाजे।
सन्त के बस भए हरि जो,
के
लाई ।
जाति वरन कुछ जानत नाहीं।
मानत प्रेम सच्चा शिवरी जाति भीलनी होता।
बेर तोरि
प्रीत जानि वाले फल खाए तीनों लोग बड़ाई।
बिरद जी अचरज कीन्हीं हरि सो प्रीत खगाई।
छप्पर भोग त्याग के गए पहिले खिचरी खाई।
नाम देव पिया रैदास तिन सो मान मिताई।
सेष की संशय मेटयो आप भए हरि नाई।
सहस्र अठासी ऋषि मुनि होब शंख बहुत नहीं बाँज.
कहत कबीर शपच के आए शंख मगन रहे बाजे।