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भजन १४२
अरे कोई सफा न देखा दिल का। टेक
बिल्ला देखा बगुला देखा,
सर्प जो देखा बिल का
ऊपर-२ सुन्दर लागे,
भीतर गोला पत्थर का
काजी देखा मौला देखा,
पण्डित देखा छल का
औरन को बैकुण्ठ पढावे,
पढ़े लिखे नहीं गुरु मन्त्र को,
बैठे नाहिं साधु संगत में,
आप नरक. में सरका
भरा धुमान कुमति का।
करे गुजान चरण का
मोह की फांसी परी गले में,
भाव करे कठिन का।
काम क्रोध. दिन रात सताए,
लानत ऐ से तन को ।
| सत्यनाम को मूल पकड़ ल,
| कहत कबीर सुनो सुल्ताना,
कब हु
स्वर्ग पाताल मृत्यु खंड रचि
तीन. लोक
फिर
हरिहर ब्रह्मा का प्रकटाया,
दियो सिर मारा ।
दिहै
ठगने. को
बोरे,
कै से
छांड़ि कपट सब दिल का।
पहिरि भकीरी अंगरखा ।
देवे
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