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विश्वास की विजय

                    श्रेतमुनिपर शंकरकी कृपा 
मृत्यु क्या कर सकती है? मैंने मृत्युञ्य शिवकी शरण ली है।’ श्रेतमुनिने पर्वतकी निर्जन कन्दरामें आत्मविश्वासका प्रकाश फैलाया। चारों ओर सात्त्विक पवित्रताका ही राज्य था, आश्रममें निराली शान्ति थी। 
मुनिकी तपस्यासे वातावरणकी दिव्यता बढ़ गयी। धैतमुनिकी आयु समाप्तिके अन्तिम श्वासपर थी। 
वे अभय होकर रुद्राध्यायका पाठ कर रहे थे, भगवान्‌ 
त्रयम्बकके स्तवनसे उनका रोम-रोम प्रतिध्वनित था। 
वे सहसा चौंक पड़े। उन्होंने अपने सामने एक विकराल आकृति देखी; उसका समस्त शरीर काला था और उसने अति भयंकर काला वस्त्र धारण कर रखा था। 
“3७ नमः शिवाय’ इस पवित्र मन्त्रका उच्चारण करते हुए श्वेतमुनिने अत्यन्त करुणभावसे शिवलिड्रकी ओर देखा। उन्होंने उसका स्पर्श करके बड़े विश्वाससे अपरिचित आकृतिसे कहा –‘तुमने हमारे आश्रमको अपवित्र करनेका दुःसाहस किस प्रकार किया ? यह तो भगवान्‌ शिवके अनुग्रहसे अभय है।’ मुनिने पुनः शिवलिड्रका स्पर्श किया। 
*अब आप धरतीपर नहीं रह सकते, अवधि पूरी हो गयी। आपको यमलोक चलना है।’ भयंकर आकृतिवाले कालने अपना परिचय दिया। 
“अधम, नीच, तुमने शिवकी भक्तिको चुनौती दी है। जानते नहीं, भगवान्‌ शंकर कालके भी काल-महाकाल हैं।’ श्वेतमुनिने शिवलिड्रको अड्डूमें भरकर निर्भवताकी साँस ली। 
“शिवलिड्र निश्चेतन है, शक्तिशून्य है, पाषाणमें सर्वेश्वर महादेवकी कल्पना करना महान्‌ भूल है, ब्राह्मण!” कालने श्वेतमुनिको पाशमें बाँध लिया। 
‘धिक्कार है तुम्हें, परम चिन्मय माहेश्वर लिड्गरकी शक्तिमत्ताकी निनदा करनेवाले काल! भगवान्‌ उमापति कण-कणमें व्याप्त हैं । विश्वासपूर्वक आवाहन करनेपर वे भक्तकी रक्षा करते हैं।’ श्वेतमुनिने मृत्युकी भर्त्सना की। 
“ठहरो, श्वेतमुनिकी बात सच है, हमारा प्राकट्य विश्वासके ही अधीन है।’ उमासहित भगवान्‌ चन्द्रशेखर प्रकट हो गये। उनकी जटामें पतितपावनी गड्भाका मनोरम रमण था, भुजाओंमें सर्पपलय और वक्षदेशमें साँपोंकी माला थी। भगवान्‌के गौर शरीरपर भस्मका श्रृद्भार ऐसा लगता था मानो हिमालयके धवल शिखरपर श्याम घनका आन्दोलन हो। काल उनके प्रकट होते ही निष्प्राण हो गया। उसकी शक्ति निष्क्रिय हो गयी। श्वैतमुनिने भगवानके चरणोंमें प्रणम किया, वे भोलानाथकी स्तुति करने लगे। 
“आपकी लिड्रोपासना धन्य है, भक्तराज! विश्वासकी विजय तो होती ही है।’ शिवने मुनिकी पीठपर बरद हस्त रख दिया। 
नन्‍्दीके आग्रहपर कालको प्राणदान देकर भगवान्‌ मृत्युज्रय अन्तर्धान हो गये। 
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