Search

सच्ची क्षमा द्वेष पर विजय पाती है – true forgiveness conquers hatred.

सच्ची क्षमा द्वेष पर विजय पाती है

राजा विश्वामित्र सेना के साथ आखेट के लिये निकले थे। वन में घूमते हुए वे महर्षि वसिष्ठ के आश्रम के समीप पहुँच गये। महर्षि ने उनका आतिथ्य किया। विश्वामित्र यह देखकर आश्चर्य में पड़ गये कि उनकी पूरी सेना का सत्कार कुटिया में रहने वाले उस तपस्वी ऋषि ने राजोचित भोजन से किया। जब उन्हें पता लगा कि नन्दिनी गाय के प्रभाव से ही वसिष्ठ जी यह सब कर सके हैं तो उन्होंने ऋषि से वह गौ माँगी।

किसी भी प्रकार, किसी भी मूल्य पर ऋषि ने गाय देना स्वीकार नहीं किया तो विश्वामित्र बलपूर्वक उसे छीनकर ले जाने लगे। परंतु वसिष्ठ के आदेश से नन्दिनी ने अपनी हुंकार से ही दारुण योद्धा उत्पन्न कर दिये और उन सैनिकों की मार खाकर विश्वामित्र के सैनिक भाग खड़े हुए।
राजा विश्वामित्र के सब दिव्यास्त्र वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड से टकराकर निस्तेज हो चुके थे। विश्वामित्र ने कठोर तप करके और दिव्यास्त्र प्राप्त किये। किंतु वसिष्ठजी के ब्रह्मदण्ड ने उन्हें भी व्यर्थ कर दिया। अब विश्वामित्र समझ गये कि क्षात्रबल तपस्वी ब्राह्मण का कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
Maharishi Vashisth Dharmik Katha
उन्होंने स्वयं ब्राह्मणत्व प्राप्त करने का निश्चय करके तपस्या प्रारम्भ कर दी। सैकड़ों वर्षों के उग्र तप के पश्चात्‌ ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर दर्शन भी दिया तो कह दिया -‘वसिष्ठ आपको ब्रह्मर्षि मान लें तो आप ब्राह्मण हो जायेंगे।
विश्वामित्रजी के लिये वसिष्ठ से प्रार्थना करना तो बहुत अपमानजनक लगता था और संयोगवश जब वसिष्ठजी मिलते थे तो उन्हें राजर्षि ही कहकर पुकारते थे।
इससे विश्वामित्र का क्रोध बढ़ता जाता था। वे वसिष्ठ के घोर शत्रु हो गये थे। एक राक्षस को प्रेरित करके उन्होंने वसिष्ठ के सौ पुत्र मरवा डाले। स्वयं भी वसिष्ठ को अपमानित करने, नीचा दिखाने तथा उन्हें हानि पहुँचाने का अवसर ही ढूँढ़ते रहते थे।
मैं नवीन सृष्टि करके उसका ब्रह्मा बनूँगा! अपने उद्येश्य में असफल होकर विश्वामित्रजी अद्भुत हठ पर उतर आये। अपने तपोबल से उन्होंने सचमुच नवीन सृष्टि करनी प्रारम्भ की। नवीन अन्न, नवीन तृण-तरु, नवीन पशु-वे बनाते चले जाते थे। अन्त में ब्रह्माजी ने उन्हें आकर रोक दिया। उन्हें आश्वासन दिया कि उनके बनाये पदार्थ और प्राणी ब्राह्मी सृष्टि के प्राणियों के समान ही संसार में रहेंगे।
कोई उपाय सफल होते न देखकर विश्वामित्र ने वसिष्ठजी को ही मार डालने का निश्चय किया। सम्मुख जाकर अनेक बार वे पराजित हो चुके थे, अत: अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर रात्रि में छिप कर वसिष्ठ जी के आश्रम पर पहुँचे। गुप्तरूप से वे वसिष्ठ का वध उनके अनजान में करना चाहते थे। चाँदनी रात थी, कुटी से बाहर वेदी पर महर्षि वसिष्ठ अपनी पत्नी के साथ बैठे थे। अवसर की प्रतीक्षा में विश्वामित्र पास ही वृक्षों की ओट में छिप रहे।
उसी समय अरुन्धतीजी ने कहा -‘कैसी निर्मल ज्योत्म्ना छिटकी है।
वसिष्ठजी बोले -आज की चन्द्रिका ऐसी उज्वल है जैसे आजकल विश्वामित्रजी की तपस्या का तेज दिशाओं को आलोकित करता है।!
विश्वामित्र ने इसे सुना और जैसे उन्हें साँप सूँघ गया। उनके हृदय ने धिककारा उन्हें-‘जिसे तू मारने आया है, जिससे रात-दिन द्वेष करता है, वह कौन है-यह देख! वह महापुरुष अपने सौ पुत्रों के हत्यारे की प्रशंसा एकान्त में अपनी पत्नी से कर रहा है।
नोच फेंके विश्वामित्र ने शरीर पर के शस्त्र। वे दौड़े और वसिष्ठ के सम्मुख भूमि पर प्रणिपात करते दण्डवत्‌ गिर पड़े। बद्धमूल द्वेष समाप्त हो चुका था सदा के लिये। वसिष्ठ की सहज क्षमा उस पर विजय पा चुकी थी। द्वेष और शस्त्र त्यागकर आज तपस्वी विश्वामित्र ब्राह्मणत्व प्राप्त कर चुके थे। महर्षि वसिष्ठ वेदी से उतरकर उन्हें दोनों हाथों से उठाते हुए कह रहे थे–‘उठिये, ब्रह्मर्षि !!
Share this article :
Facebook
Twitter
LinkedIn

Leave a Reply