नास्तिकता का कुठार
एक वैश्य था, जिसका नाम था नन्दभद्र। उसकी धर्मनिष्ठा देखकर लोग उसे साक्षात् ‘धर्मावतार’ कहा करते थे। वास्तव में वह था भी वैसा ही। धर्मसम्बन्धी कोई भी विषय ऐसा न था, जिसकी उसे जानकारी न हो। वह सबका सुहद् एवं हितैषी था।
उसका पड़ोसी एक शुद्र था, जिसका नाम था सत्यव्रत। यह ठीक नन्दभद्र के विपरीत बड़ा भारी नास्तिक और दुराचारी था। यह नन्दभद्र का घोर द्वेषी था और सदा उसकी निन्दा किया करता था। वह अवसर ढूँढ़ता रहता था कि कहीं मौका मिले तो इसे धर्म से गिराऊँ।
आखिर एक दिन इसका मौका भी उसे मिल गया। बेचारे नन्दभद्र के एकमात्र युवा पुत्र का देहान्त हो गया और थोड़े ही दिनों बाद उसकी धर्म पत्नी कनका भी चल बसी। नन्दभद्र को इन घटनाओं से बड़ी चोट पहुँची। विशेषकर पत्नी के न रहने से गृहस्थ-धर्म के नाश की उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। सत्यव्रत तो यही अवसर ढूँढ़ रहा था।
वह कपटपूर्वक ‘हाय ! हाय! बड़े कष्ट की बात हुई।’ इत्यादि शब्दों से सहानुभूति का स्वॉग रचता नन्दभद्र के पास आया और कहने लगा – भाई! जब आपकी भी यह दशा देखता हूँ तो मुझे यह निश्चय हो जाता है कि धर्म केवल धोखे की पट्टी है। मैं कई वर्षो से आपसे एक बात कहना चाहता था, पर अवसर न आया।!
नन्दभद्र के बहुत आग्रह करने पर सत्यव्रत कहने लगा – भाई! जब से आपने पत्थरों की पूजा शुरू की, मुझे तभी से आपके दिन बिगड़े दिखायी पड़ने लगे थे। एक लड़का था, वह भी मर गया। बेचारी साध्वी स्त्री भी चल बसी। ऐसा फल तो बुरे कर्मो का ही होता है।
नन्दभद्र जी! ईश्वर, देवता कहीं कुछ नहीं हैं। यह सब झूठ है। यदि वे होते तो किसी को कभी दिखलायी क्यों न देते? यथार्थ में यह सब ब्राह्मणों की धूर्तता है। लोग पितरों को दान देते हैं, ब्राह्मणोंको खिलाते हैं, यह सब देखकर मुझे हँसी आती है। क्या मरे हुए लोग कभी खा सकते हैं ? इस जगत् का कोई निर्माता ईश्वर नहीं है। सूर्य आदि का भ्रमण, वायु का बहना, पृथ्वी, पर्वत, समुद्रों का अस्तित्व – यह सब स्वभाव से ही है।
धूर्त जन मनुष्य जन्म की प्रशंसा करते हैं। पर सच्ची बात तो यह है कि मनुष्य जन्म ही सर्वोपरि कष्ट है, वह तो शत्रुओं को भी न हो। मनुष्य को सैकड़ों शोक के अवसर सर्वदा आते रहते हैं। जो इस मनुष्य – शरीर से बचे, वही भाग्यवान् है। पशु, पक्षी, कीड़े – ये सब कैसे भाग्यवान् हैं, जो सदैव स्वतन्त्र घूमा करते हैं। अधिक क्या कहूँ? पुण्य-पाप की कथा भी कोरी गप्प ही है। अत: इनकी उपेक्षा कर यथारुचि खाना-पीना और मौज उड़ाना चाहिये।
नन्दभद्र पर इन बातों का अब भी कोई प्रभाव न पड़ा। हँसकर उन्होंने कहा, ‘भाई सत्यव्रत! आपने जो कहा कि धर्म का आचरण करने वाले सदा दुखी रहते हैं, यह असत्य है क्योंकि मैं पापियों को भी दुःखजाल में फँसा देखता ही हूँ। वध-बन्धन, क्लेश, पुत्र स्त्री की मृत्यु – यह पापियों को भी होता है।
इसलिये धर्म ही श्रेष्ठ है क्योंकि यह बड़ा धर्मात्मा है, इसका लोग बड़ा आदर करते हैं, ऐसी बात पापियों के भाग्य में नहीं होती। और मैं पूछता हूँ, पाप यदि बुरा नहीं है तो कोई पापी यदि आपकी स्त्री या धन का अपहरण करने के लिये आपके घर में घुस आये तो आप उसका विरोध क्यों करते हैं?
आपने जो यह कहा कि व्यर्थ पत्थरकी पूजा क्यों करते हो? सो अंधा सूर्य को कैसे देख सकता है? ब्रह्मा आदि देवता, बड़े-बड़े महात्मा, ऋषि-मुनि तथा ऐश्वर्यशाली सार्वभौम चक्रवर्ती राजा भी भगवान् की आराधना करते हैं। उनकी स्थापित देव मूर्तियाँ आज भी प्रत्यक्ष हैं। क्या वे सभी मूर्ख थे और एक आप ही बुद्धिमान् हैं?
“देवता नहीं हैं, वे होते तो क्या किसी को दिखलायी नहीं पड़ते ?’ आपके इस वाक्य को सुनकर हमें तो बड़ी हँसी आती है। पता नहीं आप कौन-से ऐसे सिद्ध हैं, जो देवता लोग भिख मंगे की तरह आपके दरवाजे भीख माँगने आयें।
आप जो कहते हैं कि ये संसार की सारी वस्तुएँ अपने आप उत्पन्न हो गयी हैं, तो हम पूछते हैं कि भोजन आपकी थाली में स्वयं बनकर क्यों नहीं अपने-आप उपस्थित हो जाता? ईश्वर नहीं है यह भी बच्चों की सी बात है। क्या बिना शासक के प्रजा रह सकती है?
आप जो मनुष्य की अपेक्षा अन्य सभी प्राणियों को धन्य बतलाते हैं, यह तो मैंने आपके अतिरिक्त किसी दूसरेके मुख से कभी सुना ही नहीं। मैं पूछता हूँ यदि ये जड, तामस, सभी अज्लों से विकल अन्य प्राणी धन्य हैं तो सभी इन्द्रियों एवं साधनों तथा बुद्धि आदि वैभवों से सम्पन्न मनुष्य कैसे धन्य नहीं हैं ?’ इसी प्रकार सत्यव्रत को कुछ और समझाकर नन्दभद्र जी तप करने वन में चले गये।