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अलौकिक भातृप्रेम

‘मैं प्रभु कृपा रीति जियें जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ॥’ ( श्रीरमचरितमानस, अयोध्याकाण्ड) 

सरयूके स्वच्छ पुलिनपर चक्रवर्तीजीके चारों कुमार खेलने आये थे सखाओंके साथ। समस्त बालकोंका विभाजन हो गया दो दलोंमें। एक दलके अग्रणी हुए श्रीराम और दूसरे दलके भरतलाल। श्रीरामके साथ लक्ष्मण और भरतके साथ शत्रुघ्न कुमार तो सदासे रहे–रहते आये, सुतरां आज भी थे। दोनों यूथ सुसज्जित खड़े हो गये। दोनों दलोंके मध्यमें विस्तृत समतल भूमि स्थिर हो गयी। मध्यमें रेखा बना दी गयी। खेल चलने लगा। आज राजकुमार कबड्डी खेल रहे थे। लखनलाल आज उमंगमें थे। वे बार-बार भरतजीको ललकारते थे –‘ भेया! आज तो रघुनाथजी विजयी होंगे।’ 
यह ललकार भरतको उललसित करती थी। उनके दलके बालक आज हार रहे थे। एक-एक करके उनका दल कम हो रहा था। प्रत्येक बार जब लक्ष्मण आते थे, एक-दो बालकोंको छूकर ही लौटते थे। अन्तमें शत्र॒ुत़्न भी हार गये। अपने दलमें बच रहे अकेले भरत। 
* अब सब लोग चुपचाप खड़े रहेंगे। भरतलाल मुझे छू लें तो विजय उनकी, न छू पायें तो विजय मेरे दलकी ।’ श्रीराघवेन्द्रने खेलमें एक अद्भुत निर्णय दे दिया। ‘आप पूरे वेगसे भागें तो सही।” लक्ष्मणजीने बड़े भाईको प्रोत्साहित किया । भरत आये दौड़ते और श्रीराम भागे; किंतु ऐसे भागे जैसे उन्हें दौड़ना आता ही न हो। दस पग जाते-जाते तो भरतके हाथने उनकी पीठका स्पर्श कर लिया। “भाई भरत विजयी हुए!” श्रीगमका कमलमुख | प्रफुल्लित हो उठा। दोनों हाथोंसे तालियाँ बजाया उन्होंने। लेकिन भरतका मुख नीचे बुक गया था। उनके नेत्नोंमें उल्लासके स्थानपर लजाका भाव था। अपने अग्रजके भ्रातृख्लेहका साक्षात्‌ करके उनके बढ़े-बढ़े नेत्र भर आये थे। 
“विजयी हुए भाई भरत! श्रीराम तो उल्लासमें ताली बजाते ही जा रहे थे। 
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