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विचित्र माया नगरी – strange enchanted city anmol kahani

विचित्र माया नगरी

माया नगरी देह में, देखा ध्यान लगाए। 
भूले भटके जो यहाँ, उनको मार्ग दिखाय ॥  
पुरंजन नाम का एक प्रसिद्ध राजा थे। उसने अपने निवास के लिए पृथ्वी पर भ्रमण किया। भ्रमण करते हुए उसने एक विचित्र नगर देखा, जिसके नौ द्वार थे। उनमें घूमती हुई एक सुन्दर महिला भी दिखाई दी जिसके साथ दस नौकर थे जो सौ सिपाहियों की देख भाल करते थे और पाँच सिर वाला एक साँप उसकी चारों ओर से रक्षा कर रहा था।
विचित्र माया नगरी - strange enchanted city anmol kahani
दोनों की आँखें मिलते ही आपस में प्रेम हो गया। दोनों राजा रानी बनकर रहने लगे। उन्हें वहाँ रहते हुए सौ वर्ष का समय व्यतीत हो गया। पुरंजन रानी की आज्ञा को शिरोधार्य किया करता था।
एक बार पुरंजन अपना धनुष बाण धारण कर रथ में बैठकर पंचम पुस्थ नामक जंगल में शिकार खेलने को गया। रथ में पाँच घोड़े जुते थे और रथ के डण्डों में दो पहिए, एक धुरी, तीन ध्वज दण्ड, एक रस्सी, पाच बंध तथा एक रथवान के बैठने का स्थान था। रथ पर सात पर्दे पड़े थे, रथ की गति पांच प्रकार की थी। पुरंजन सोने का कवच पहने था। राजा के साथ ग्यारह प्रकार की सेना थी। वह धनुष बाण का प्रयोग करके शिकार खेलता रहा परन्तु भूख प्यास लगने पर घर को लौट आया।
ईश्वर की कृपा से उसके यहां 1100 लड़के व 1100 लड़कियों ने जन्म लिया जो माता पिता की कीर्ति तथा वैभव को बढ़ाने वाली थीं।
अचानक चण्ड नाम के एक गंधर्व राजा ने 330 गन्धर्व सैनिक और इसकी आधी कृष्णवर्ण की और आधी गौर वर्ण  की गन्धर्वणियों को साथ लेकर पुरंजन के नगर पर आक्रमण कर दिया। पुरंजन उनसे सौ वर्ष तक युद्ध करता रहा।
गंधर्वों की एक दुर्भागिनी लड़की अपने लिए पति की तलाश में भूमण्डल पर घूम रही थी परन्तु किसी ने उसे स्वाकार नहीं किया। अंत में देवर्षि नारदजी के कहने पर उसने अपने सगे भाई भय को ही अपना पति स्वीकार कर लिया। ये दोनों पति -पत्नी  पुरंजन नगर में घुस गये और उसकी यवन सेना ने नगर के नौ द्वारों में प्रवेश कर समस्त नगर को तहस नहस कर डाला। उन्होंने पुरंजन की चोटी पकड़ ली। साथ ही भय का बड़ा भाई प्रज्वर भी वहां पर आ पहुचा । इन दोनों भाइयों ने मिलकर पुरंजन के नगर में आग लगा दी।
पुरंजन ऐसा चक्कर में फँसा कि वह अपने अज्ञात मित्र को भी न बुला सका जो उसको इन सभी बाधाओं से क्षणमात्र में मुक्त करा सकता था।
 
वास्तव में महर्षि वेदव्यास जी ने यह एक दृष्टान्त दिया है जिसका तात्पर्य यह है-
 
पुरुष पुरंजन विद्यात, पुरुहस्य सरवेश्वर: | 
बुद्धिन्तु प्रमदां विद्यात्‌ संवत्सरजञ्चण्ड वेग:। 
काल कन्या जरा साक्षात, प्रज्वरोविधोज्चर: |
स्वसारं जगुहे मृत्यु: क्षमाय यवनेश्वर:॥
अर्थात्‌–पुरंजन नाम का राजा जीव है, जिसका परम सहायक मित्र अज्ञात परमेश्वर है, जीव अनेक योनियों में भ्रमण करके अपने योग्य शरीर की खोज करता फिरता है। नौ द्वारों वाला नगर मनुष्य का शरीर है जिसके नौ द्वार गुदा, मुख, कान, नाक, आँखें, ऊपर के और लिंग नीचे का द्वार है। ऐसे शरीर रूपी नगर में जीव निवास करता है जहाँ उसे बुद्धि रूपी सुन्दर स्त्री मिलती है, जिसकी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रिया नौकर हैं जो सैकड़ों प्रकार के इन्द्रियों के कार्यों के निरीक्षक हैं। उस कन्या रूपी बुद्धि की रक्षा करने  वाला सर्प प्राण है। जिसके पान, अपान, उदान, समान और व्यान रूपी पाँच शिर हैं, जो रक्षक की भाँति उसको सुरक्षित रखता है। उसके प्रताप से जीव पुरुष ओर बुद्धि स्त्री रूप दम्पत्ति आनन्द पूर्वक 100 वर्ष का जीवन व्यतीत करते हैं।
शिकार हेतु पुरंजन रथ को ले गया था, वह रथ शरीर  है, जिसमें इन्द्रिय विषय ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध ) रूपी घोड़े जुते हैं। पाप, पुण्य रूप दो पहिये हैं। तीन गुण ( सत्व, रज, तम ) तीन पताकायें हैं। पाँच प्राणों की रस्सी से पाँच स्थान पर बंधा है। इन सब घोड़ों की मन रूपी एक ही लगाम है। बुद्धि सारथी है और हृदय जीव के बैठने का मुख्य स्थान है । सुख-दुःख दोनों जगह बन्धन स्थान हैं । मांस आदि सातों साधु उसके झांमण हैं। जिस रथ पर सवार होकर जीव रूप पुरंजन विषय प्राप्ति रूप शिकार में प्रवृत्त होता है।
11 इन्द्रियों की सेना उसके साथ पाँच विषय “पंचग्रस्थ” बन है। जीव जगत की विषय वासना रूपी मृगतृष्णा से दुःखी तथा श्रमित होकर हृदय रूपी निवास में आ जाता है जहाँ उसको बुद्धि भी विक्षिप्त मिलती है। कुछ दिन बीत जाने पर अनेकों संकल्प, विकल्प और विषय वासना रूपी संतानों की अत्यन्त वृद्धि होती है जिसके फेर
में फंसकर व्यक्ति अपने को भूल जाता है।
 काल की गणना करने वाला संवत्सर गंधर्वों का राजा ”चण्डवेग” है जिसके सेना नामक 360 दिन, उजली व अंधेरी रातें गन्धर्व राज की 360 रानियां हैं। इस प्रकार 720 व्यक्तियों की सेना मानव शरीर रूप पुरंजन नगर का अध्यक्ष उसका अहंकार ही है जो बेचारा अकेले ही इतनी बड़ी सेना से लोहा लेता है। जरा अर्थात्‌ वृद्धावस्था गंधर्व कन्या है जो प्रत्येक प्राणी को वरण करने का उपाय करती है परन्तु उसे कोई सहर्ष स्वीकार नहीं करता।
अतः अभिन्न वेश मृत्यु भय रूपी अपने सगे भाई को अपना पति चुन लेती है और घात लगते ही समयानुसार शरीर रूपी नगर पर अपना अधिकार कर लेती है और उसके अनेक प्रकार के आधि-व्याधि दुःख रूप नौकर पुरंजन पुर मुँह, नाक और कान आदि नौ द्वारों से प्रवेश कर नगर को छिन्न-भिन्न करने लग जाते हैं। मृत्यु का छोटा भाई ज्वर है । जो शरीर रूपी पुरंजन नगर में आग लगा देता है।
वृद्धावस्था में मृत्यु रूपी यवन उसे आ घेरता है। जिसके  कारण बेचारा पुरंजन ( जीव ) इतना घबरा जाता है कि वह अपने परम मित्र परमेश्वर को भी भूल जाता है।
इस आध्यात्मिक दृष्टान्त से हमें यह शिक्षा मिलती है  कि आधि-व्याधि तथा दुःखों के आक्रमण पर परमपिता का अवश्य स्मरण करना चाहिए। वही हमारी समस्त विपत्तियों को क्षणमात्र में दूर कर सकता है। वही हमें उससे बचने का उपाय बतायेगा और हमें शक्ति प्रदान करेगा।
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