शिक्षा के योग्य
माघ का महीना था। खूब सर्दी पड़ रही थी। नन्ही बूंदों की वर्षा होने लगी। झंझावत छुरी की भाँति तन मन को चीरती हुई चल रही थी। दाँत आपस में बज रहे थे। ऐसे समय में एक बन्दर वृक्ष पर बैठा हुआ दातों की वीणा बजाता हुआ झंझावत से युद्ध कर रहा था।
घोंसले में न बैठे हुए बया ने उससे कहा-भाई! मैं तुम्हें कई बार कह चुकी हूँ कि तुम भी मेरी तरह घर बनाकर आनन्द से जीवन व्यतीत करो परन्तु तुमने मेरी बातों पर कभी अमल नहीं किया।
यह उसी का परिणाम है कि आज इस भयंकर शीत ऋतु में वर्षा के समय तेज वायु के बाणों से पीड़ित होकर इस प्रकार कष्ट उठाते हुए अपने शरीर को कष्ट दे रहे हो। बन्दर ने कड़कते हुए बया से कहा – वुष्ट! तुझे इससे क्या? मेरा शरीर है, मैं इसे चाहे जो कष्ट दूँ।
बया ने कहा – अरे दुष्ट! एक तो तुझे शिक्षा दी जा रही है दूसरे हमसे कह रहा है कि तुम्हें इससे क्या? अरे! है तो सब कुछ मनुष्य की तरह का शरीर तेरे पास है और फिर भी बिना घर बार के दीनों की तरह ठंड से ठिठुर कर दाँतों की बंशी बजा रहा है। यदि तनिक भी तेरे अन्दर शर्म नाम की चीज होती तो कभी का केुँए में डूबकर मर गया होता।
बया की इतनी बातें सुनते ही बन्दर को क्रोध आ गया और उसने वहाँ से छलाँग लगाकर बया के घोंसले को तोड़कर पृथ्वी पर फेंक दिया। मूर्ख को कभी शिक्षा नहीं देनी चाहिए क्योंकि उसे शिक्षा देने से कभी स्वयं विपत्ति में फंसना पड़ जाता है। यदि बया ने बन्दर को शिक्षा न दी होती तो उसकी ऐसी दुर्दशा कभी न हुई होती। इसलिए हम सब को किसी मूर्ख को शिक्षा न देने की प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए कहा है कि-
सीख उसको दीजिए जिसको सीख सुहाय।
सीख न दीजै बॉदरया सो घर बया को जाय॥