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मौन से संवाद कविता – Silent dialogue poem

मौन से संवाद

संबंधों को देगची पकने दो
वक्त की धीमी आग में
क्यों पूछते हो मुझसे
दोस्ती की परिभाषा?
इतना आसान नहीं
इस शब्द को बांधना
कुछ वाक्यों में
किसी भी रिश्ते की
सार्वभौम परिभाषा
नहीं ढूंढ पायी मैं आज तक
फिर
दोस्ती तो पराग से कोमल
और पत्थर से ज़्यादा मज़बूत हो सकती है
वक्त दो थोड़ा मुझे
समझना चाहती हूँ
इस शब्द का सही-सही अर्थ
शब्दों के चक्रव्यूह में मत डालो
यह व्यूह रच सकती हूँ मैं भी
सुनो सफर तय करने की जल्दी क्या है?
तरल सतह पर नहीं जमते
रिश्तों के पाँव
ठोस ज़मीन चाहिये उन्हें
और ठोस ज़मीन तैयार करता है वक्त
अपनी अदृश्य गति से चलता
सिखाता है हमें उठना चलना
गिर-गिर कर संभलना
झांकती हूँ अतीत की खोह में
तुम्हारी मुस्कान याद आती है मुझे
पर अब लगता है
दोस्ती के पुलाव को
बहुत जल्दी पकाने के लिए
देते गये ताप
अधिक और अधिक
अब हालत यह है कि नथुनों में
जली देगची की गंध
फैल गई है मेरे चारों ओर
छोड़ती नहीं पीछा
बस, तुमसे यही पूछना है
क्या जल्दी थी तुम्हें?
नहीं पा सके किसी का पूरा प्यार
पूरा अधिकार
अब ज़माने को दोष देना छोड़ दो।

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