मौन एक श्रेष्ठ तप साधना
वाणी और मस्तिष्क का सीधा सम्बन्ध है। मनुष्य जो भी कुछ सोचता और विचारता है, उसकी अभिव्यक्ति वाणी के माध्यम से करता है। भावनाएँ वाणी के द्वारा ही प्रकट होती और अन्तराल की उत्कृष्टता-निकृष्टता का परिचय देती हैं। वासना, तृष्णा, अहंता आदि की ज्वालाएँ अन्दर ही अन्दर धधकती रहती हैं और जब-तब अवसर पाकर वाणी के माध्यम से बाहर फूट पड़ती हैं अथवा मानसिक शक्तियों को घुन की तरह चाटती-कुतरती रहती हैं। अध्यात्म साधनाओं में इसीलिए वाणी के संयम को मानसिक संयम के साथ सम्बद्ध रखा गया है और कहा गया है कि विचारणा, भावना और आकाँक्षा पक्ष से मानसिक शक्तियों का क्षरण रोका जाय, पर अभिव्यक्ति पक्ष से वाक् संचय न किया जाय, तो शक्ति संचय की साधना अधूरी एवं एकाँगी रह जाएगी। इसलिए मानसिक संयम के साथ-साथ वाणी का संयम भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मौन साधना इसी की पूर्ति करती है।
मौन की गणना मानसिक तप के रूप में की गई है। गीताकार ने कहा है ‘मन प्रसादः सौमत्व्यं मौनमात्म विनिग्रहः।’ अर्थात् मन की प्रसन्नता, सौम्य शालीनता, मौन मनोनिग्रह और विचारों की शुद्धि मानसिक तप कहे जाते हैं। वरन् शक्ति का अपव्यय भी रुकता है मानसिक संयम साधने में मौन का असाधारण महत्व है। शास्त्रों में इसके अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं।
महर्षि व्यास की वह कथा प्रसिद्ध है, जिसमें महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ की रचना कर लेने के पश्चात उन ने गणेश जी से लेखन कार्य पूरा न होने तक एक शब्द भी न बोलने का कारण पूछा था, प्रत्युत्तर में गणेश जी ने कहा था ‘यदि मैं बीच-बीच में बोलता जाता, तो आपका यह कार्य न केवल कठिन हो जाता, वरन् एक भार ही बन जाता। महर्षि रमण के बारे में प्रसिद्ध है कि वे सर्वथा मौन रहते हुए भी आगन्तुकों की समस्याओं का समाधान कर देते थे। सभी पूर्ण सन्तुष्ट होकर जाते और अपने प्रश्नों के उत्तर मौन वाणी से ही प्राप्त कर लेते थे। तभी तो मनीषियों ने मौन को पवित्रतम् विचारों का मन्दिर कहा है।
शरीर-क्रिया विज्ञानियों का कहना है कि शरीर के जिन कार्यों में सर्वाधिक शक्ति खर्च होती है, वह वाणी है। उसके संयम का महत्व न समझने वालों की प्रायः यही मान्यता होती है कि बोलने में क्या लगता है? उन्हें यह ज्ञात नहीं कि बोलने में कितनी अधिक मानसिक शक्ति खर्च होती है। एक घण्टे लगातार बोलने पर व्यक्ति इतना थक जाता है मानों चार घण्टे तक शारीरिक श्रम किया हो। कारण वाक् तंत्र का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से है। अन्य कार्य यों तो हाथ-पैर से भी किये जा सकते हैं और उन्हें करते समय ध्यान कहीं और भी रह सकता है, पर बोलते समय सारा ध्यान बोलने पर ही रखना पड़ता है। अन्यथा मुख से उच्चरित शब्द बकवास मात्र रह जाते हैं। अधिक बकवास मानसिक शक्तियों को नष्ट करती हैं, वरन् उससे आध्यात्मिक दृष्टि से भी हानियाँ ही हानियाँ होती हैं।
मनीषियों ने वाणी के अपव्यय को रोकना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी बताया है। मूर्धन्य मनोविज्ञान वेत्ताओं का कहना है कि मौन से विचार शक्ति बढ़ती है। सुविख्यात विचारक जेम्स एलन अपनी कृति “पावर्टी टु पीस” में कहते हैं कि समस्त शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ शक्ति मौन की शक्ति है। जब वह उचित मार्ग में प्रयुक्त होती है, तो उन्नति एवं अभ्युदयकारक होती है, किन्तु दुरुपयोग होने पर विनाशकारी दुष्परिणाम प्रस्तुत करती है। भाप, विद्युत आदि शक्तियों का दुरुपयोग हो, तो अनर्थ ही खड़े करेंगी। विचार सम्पदा के बारे में भी यही बात है। वह संसार की सबसे अधिक शक्तिशाली शक्ति है। जिन्हें मन को वश में रखना एवं अपने आप पर नियंत्रण साधना हो, उन्हें नियमित रूप से कुछ समय के लिए मौन रहना चाहिए। एकाग्रता सम्पादन के लिए इससे बढ़कर कोई अन्य सरल उपाय है नहीं।
सामान्य जीवन में भी कार्य करते समय बोलने और मौन रहने का अन्तर समझा जा सकता है। जो व्यक्ति मौन रहते हैं, उनकी बुद्धि अपेक्षाकृत अधिक स्थिर तथा संतुलित विचारों वाला हानि-लाभ, हित-अनहित के प्रसंगों पर बड़े धैर्यपूर्वक सोच समझ सकता है। संकट या आपत्ति के समय मौन द्वारा प्रखर की हुई विचार शक्ति बड़ी सहायक सिद्ध होती है। कभी भी देखा जा सकता है कि जब मनुष्य किसी गहन प्रसंग पर सोचना चाहता है, तब वह एकान्त की तलाश करता है। न तो वह उस समय बोलता है और न किसी से बात ही करता है। बोलना और विचार करना दोनों क्रियाएँ एक साथ नहीं हो सकतीं। विचारक जितने गहरे मौन में उतरता जाता है, समस्याओं का सार्थक हल खोज लाता है। महात्मा गाँधी को जब कभी किसी विकट समस्या पर विचार करना होता था, तब वे कई दिनों तक मौन व्रत धारण कर लिया करते थे। सप्ताह में एक दिन तो वे मौन रखते ही थे, उनका कहना था कि मौन से आत्मिक बल बढ़ता है। आत्मिक बल बढ़ाने वाले मौन के साथ और बातें भी जुड़ी होती हैं। मौन को उन ने सर्वोत्तम भाषण बताया है और कहा है कि अगर बोलना ही पड़े, तो कम बोलना चाहिए। यदि एक शब्द से काम चल जाय, तो दूसरा मुँह से नहीं निकलना चाहिए।
“क्राइस्ट इन साइलेंस” नामक कृति में सी एफ. एण्डूज कहते हैं कि महान व्यक्ति वहीं होते हैं, जो यह जान लेते है कि आध्यात्मिक शक्ति भौतिक शक्ति से अधिक बलवान है। आत्मशक्ति को जाग्रत करने का सबसे अच्छा और सरल उपाय उन ने कुछ समय के लिए मौन होकर ईश्वर प्रार्थना को बताया है। उनके अनुसार मौन की गुप्त शक्ति असीम है। वाणी का संयम तो इससे होता ही है, मानसिक शक्ति का अनावश्यक क्षरण रुकता है, और एकाग्रता बढ़ती है। उच्चस्तरीय विचार प्रवाह शाँत-स्थिर मनःस्थिति में ही उठते और अभ्युदय का, प्रगति का आधार खड़ा करते हैं। मौन की महिमा का गान करते हुए इमर्सन कहते हैं “आओ हम चुप रहें, ताकि फरिश्तों के वार्तालाप सुन सकें।”
वस्तुतः मौन हृदय की भाषा है। मुँह से एक शब्द कहे बिना भी अपनी भाव-संवेदना व्यक्त की जा सकती है और जितना असर वाणी का होता है, उससे कहीं अधिक प्रभाव वह उत्पन्न कर सकती है। सुप्रसिद्ध मनीषी इनेरेट अपनी रचना में एक छोटी बालिका के संबंध में लिखते हैं कि वह पक्षियों और वन्य जीवों के साथ खेला करती थी और बीच-बीच में पास में बने परिसर में प्रार्थना करने के लिए दौड़ जाया करती थी। प्रार्थना करने के पश्चात् बिलकुल शान्त होकर चुपचाप कुछ देर के लिए वहीं बैठी रहती। पूछने पर कारण बताते हुए कहती कि – ‘मैं’ देर तक चुपचाप इसलिए बैठी रहती हूँ, ताकि यह सुन सकूँ कि ईश्वर मुझसे, कुछ कहना तो नहीं चाहता।’ शान्त और एकाग्र मन से ही उससे वार्तालाप संभव है। मौन रहकर ही अपने अन्तराल में उतरने वाले ईश्वर के दिव्य संदेशों, प्रेरणाओं को सुना समझा जा सकता है।
मौन के अभ्यास से न केवल अनावश्यक बोलने की प्रकृति पर अंकुश रखने की क्षमता आ जाती है, वरन् उसके विकसित होने पर वाणी के संतुलन के अनेकानेक प्रयोग करने की स्थिति भी पैदा हो जाती है। अतः मनः संयम के साधक को मौन साधना का कुछ न कुछ क्रम बनाकर रखना ही चाहिए। मौन का अर्थ यह नहीं है कि मुँह से कुछ न बोलते हुए हाथ चलाने या लिखकर बातें करने का क्रम अपनाया जाय। उससे मौन साधना के सत्यपरिणाम प्राप्त नहीं होते। शब्दों का उच्चारण भले ही न किया जाता हो, पर बोलने की वृत्ति दूसरी तरह से व्यक्त होती रहे, तो जो शक्ति बोलने में खर्च होती थी, वह उस विषय में खर्च होने लगती है। ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाकर किया गया मौन ही असाधारण प्रतिफल प्रदान करता है। मौन का अर्थ आन्तरिक है। बाह्य क्रियाओं का अपने ऊपर प्रभाव न होने देना, स्वयं को उनसे निरपेक्ष रखने का नाम मौन है। मौन द्वारा बहिर्मुखी दिशा में तथा विचार संयम द्वारा आन्तरिक दिशा में मानसिक शक्तियों का अपव्यय होने से रोक लिया जाय, तो फिर इन्द्रिय संयम आसान हो जाता है। अतः वाणी का संयम करने के लिए हर साधक को थोड़ा बहुत समय मौन साधना के लिए नियत रखना चाहिए। कम से कम सप्ताह में एक दिन या कुछ घण्टे ही सही मौन अवश्य रखा जाय। आत्मबल संवर्धन की यह सर्वश्रेष्ठ साधना जो है।