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कहानी – पश्चात्ताप का परिणाम – result of regret.

पश्चात्ताप का परिणाम

अप्युन्नतपदारूढ पूज्यानू नैवापमानयेत्‌ |
इक्ष्याकूणां भनाशाग्रेस्तेजो. बुशावमानतः ॥
इक्ष्वाकु-वंश के महीप त्रिवृष्ण के पुत्र श्रयरुण की अपने पुरोहित के पुत्र वृशजान से बहुत पटती थी। दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे। महाराज त्र्यरुण की वीरता और वृशजान के पाण्डित्य से राजकीय समृद्धि नित्य बढ़ रही थी। महाराज ने दिग्विजय-यात्रा की। उन्होंने वृशजान से सारथि-पद स्वीकार करने का आग्रह किया। वृशजान रथ हाँकने में बड़े निपुण थे। उन्होंने अपने मित्र की प्रसन्नतां के लिये सारथि होना स्वीकार कर लिया।
राजधानी में प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी। दिग्विजय यात्रा समाप्तकर श्रयरुण लौटने वाले थे। रथ बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा था, राजधानी थोड़ी ही दूर रह गयी थी कि सहसा रथ राजपथ पर रुक ही गया। अनर्थ हो गया, महाराज! हमारी दिग्विजय-यात्रा कलड्डित हो गयी, रथ के पहिये के नीचे एक ब्राह्मण कुमार दबकर स्वर्ग चला गया। वृशजान ने गम्भीर साँस ली।
story about result of regret

इस कलड्ड की जड़ आप हैं, पुरोहित। आपने रथ का वेग बढ़ाकर घोर पाप कर डाला। महाराज थरथर कॉपने लगे।
दिग्विजय का श्रेय आपने लिया तो यह ब्रह्म हत्या भी आपके ही सिर पर मढ़ी जायगी। पुरोहित वृशजान के शब्दों से महाराज तिलमिला उठे। दोनों में अनबन हो गयी। श्रयरुण ने उनके कथन की अवज्ञा की।

वृशजान ने अथर्वाड्रिरस मन्त्र के उच्चारण से ब्राह्मण कुमार को जीवन-दान दिया। उसके जीवित हो जाने पर महाराज ने उन्हें रोकने की बड़ी चेष्टा की। पर वृशजान अपमानित होने से राज्य छोड़कर दूसरी जगह चले
पुरोहित वृशजान के चले जाने पर महाराज त्र्यरुण पश्चात्ताप की आग में जलने लगे।
मैंने मदोन्मत्त होकर अपने अभिन्न मित्र का अपमान कर डाला – यह सोच सोचकर वे बहुत व्यथित हुए। राजप्रासाद, राजधानी और सम्पूर्ण राज्य में अग्नि देववाकी अकृपा हो गयी। “यज्ञ आदि सत्कर्म समाप्त हो गये। महाराज ने प्रजा-समेत पुरोहित के चरणों में जाकर क्षमा माँगी, अपना अपराध स्वीकार किया। वृशजान राजधानी में वापस आ गये। चारों ओर ‘स्वाहा-स्वाहा’ का ही राज्य स्थापित हो गया। अग्नि देवता का तेज प्रज्वलित हो उठा।

मेरी समझमें आ गया मित्र! राज्य में अग्रि-तेज घटने का कारण वृशजान ने यज्ञ-कुण्ड में घी की आहुति देते हुए त्र्यरुण की उत्सुकता बढ़ायी। महाराज आश्चर्यचकित थे। यह है।” वृशजान ने श्रयरुण की रानी-पिशाची को कपिश-गद्दे के आसन पर बैठने का आदेश दिया। वेदमन्त्र से अग्रि का आवाहन करते ही पिशाची स्वाहा हो गयी।

यह ब्रह्महत्या थी महाराज ! रानी के वेष में राजप्रासाद में प्रवेश कर इसने राज्यश्री का अपहरण कर लिया था।! वृशजान ने रहस्य का उद्घाटन किया। यज्ञ-कुण्ड की होम-ज्वाला से चारों ओर प्रकाश छा गया।  श्रयरुण ने वृशजान का आलिड्रनन किया। प्रजा ने दोनों की जय मनायी। चारों ओर आनन्द बरसने लगा।

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