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मौन की साधना – Practice silence

मौन की साधना

आमतौर पर वाणी को विराम देना मौन कहलाता है, किंतु ‘मौन’ का वास्तविक अर्थ मात्र चुप रहना ही नहीं, बल्कि उससे कहीं अधिक व्यापक है। वास्तव में मौन समस्त इंद्रियों को बाह्य जगत से हटाकर अंतस की ओर केंद्रित करना है। ‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-गोपनीय रखने योग्य भावों में मौन मैं हूं। मौन सतत प्रक्रिया है, जो आपके चुप रहने से आरंभ होकर गहन सत्य की खोज तक अनवरत चलती रहती है। मौन हमें अंतर्मुखी बनाता है। अंतर्मुखी व्यक्ति ही आत्मा और परमात्मा के गूढ़ रहस्य को भली-भांति समझते हुए ईश्वर का साक्षात्कार कर पाता है। इसलिए अध्यात्म पथ के पथिकों के लिए मौन को साधना का उपयोगी अंग माना गया है। मौन वह शून्यावस्था है जहां व्यक्ति अंतर्मुखी होकर अनंत की वाणी और आत्मा की पुकार को सुन सकता है। सृष्टि में संपूर्ण जड़ जगत तो मौन का ज्वलंत उदाहरण है ही, यहां रहने वाले जीव-जंतु और पशु-पक्षी भी उतना ही बोलते हैं जितना आवश्यक है। उनका मौन प्राकृतिक है। मौन की शक्ति अपार है। अव्यक्त होकर भी मौन की भाषा अभिव्यक्त हो जाती है। महान कवि विलियम वड्र्सवर्थ प्रकृति के अनन्य उपासक थे। उन्होंने अपने काव्य को मौन और नीरवता का वरदान कहा है। महर्षि रमण प्राय: मौन रहा करते और उसी अवस्था में लोगों की जिज्ञासाओं का समाधान कर दिया करते थे। मौन वाणी का तप है। मौन से भीतरी राग-द्वेष, ईष्र्या, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों का नाश होकर मनुष्य की वाणी सिद्ध व पवित्र होती है। 

मौन साधना द्वारा व्यक्ति का आत्मबल और कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में कहें तो मौन के वृक्ष पर सदैव शांति के ही फल लगते हैं। मौन का आश्रय लेकर व्यर्थ की कटुता, कलह
और विवादों से बचाव के साथ ही मिथ्या वचन, अपशब्दों के प्रयोग, परनिंदा व अनर्गल बकवास जैसे वाणी के पापों से भी बचा जा सकता है। मौन व्यक्ति की अज्ञानता
और मूर्खता पर आवरण डालने में भी सहायक है।
भर्तृहरि ने मौन को अज्ञानता का ढक्कन बताते हुए ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों के लिए मौन को सर्वोत्तम आभूषण और रक्षा-कवच बताया है। ध्यान रहे कि मुख से निकले शब्द कभी वापस नहीं लौटते। अत: सोच समझकर सीमित बोलने अथवा यथासंभव मौन धारण करने में ही भलाई है।

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