तर्क वितर्क की बाते
एक नदी के किनारे खड़े होकर अनेक व्यक्ति नदी का मूल-सम्बन्धी तर्क वितर्क कर रहे थे। एक अनुभवी वृद्ध व्यक्ति बोला – मैंने अपनी आँखों से देखा है कि यह नदी पत्थरों की कन्दरा से निकलती है। दूसरा व्यक्ति बोला – नहीं-नहीं, यह नहीं हो सकता। भला कहीं पत्थरों से भी जल निकलता है? यदि निकलता हो तो सामने यह पत्थर पड़ा है, इसमें से पानी निकाल कर दिखाओ।
तीसरा व्यक्ति बोला – यह जल एक दैत्य का पसीना है। जब हमारे नन्हें-नन्हें शरीर से पसीने की रेखा बहती है, तब राक्षस के शरीर से नदी क्यों नहीं बह सकती। चौथा व्यक्ति बोला – तुम सब की बात गलत है। शीत ऋतु में तो पसीना नहीं निकलता, तब नदी का बहाव रुक जाना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है, जल बहता ही रहता है। इस तरह नदी के मूल-सम्बन्धी अनेक तर्क-वितर्क करके उन सबने वृद्ध के अनुभव को झूँठा साबित कर दिया।
इसी प्रकार ईश्वर और उसकी अगाध शक्ति के विषय में भी लोग खोटे तर्क-वितर्क अनुभवियों के कथन को झूठ बताने का मुर्खता भरा प्रयल किया करते हैं।