Search

व्यक्तित्व विकास – personality development

व्यक्तित्व विकास

हर मनुष्य का अपना-अपना व्यक्तित्व है। वही मनुष्य की पहचान है। कोटि-कोटि मनु्ष्यों की भीड़ में भी वह अपने निराले व्यक्तित्व के कारण पहचान लिया जाएगा। यही उसकी विशेषता है। यही उसका व्यक्तित्व है। प्रकृति का यह नियम है कि एक मनुष्य की आकृति दूसरे से भिन्न है। आकृति का यह जन्मजात भेद आकृति तक ही सीमित नहीं है; उसके स्वभाव, संस्कार और उसकी प्रवृत्तियों में भी वही असमानता रहती है।

इस असमानता में ही सृष्टि का सौन्दर्य है। प्रकृति हर पल अपने को नये रूप में सजाती है। हम इस प्रतिपल होनेवाले परिवर्तन को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह हम एक गुलाब के फूल में और दूसरे में कोई अन्तर नहीं कर सकते। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। यह हमारी दृष्टि का दोष है कि हमारी आंखें सूक्ष्म भेद को और प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं परख पातीं।

Personality development

मनुष्य-चरित्र को परखना भी बड़ा कठिन कार्य है, किन्तु असम्भव नहीं है। कठिन वह केवल इसलिए नहीं है कि उसमें विविध तत्त्वों का मिश्रण है बल्कि इसलिए भी है कि नित्य नई परिस्थितियों के आघात-प्रतिघात से वह बदलता रहता है। वह चेतन वस्तु है। परिवर्तन उसका स्वभाव है। प्रयोगशाला की परीक्षण नली में रखकर उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। उसके विश्लेषण का प्रयत्न सदियों से हो रहा है। हजारों वर्ष पहले हमारे विचारकों ने उसका विश्लेषण किया था। आज के मनोवैज्ञानिक भी इसी में लगे हुए हैं। फिर भी यह नहीं कह सकते कि मनुष्य-चरित्र का कोई भी संतोषजनक विश्लेषण हो सका है।

हर बालक अनगढ़ पत्थर की तरह है जिसमें सुन्दर मूर्ति छिपी है, जिसे शिल्पी की आँख देख पाती है। वह उसे तराश कर सुन्दर मूर्ति में बदल सकता है। क्योंकि मूर्ति पहले से ही पत्थर में मौजूद होती है शिल्पी तो बस उस फालतू पत्थर को जिसमें मूर्ति ढकी होती है, एक तरफ कर देता है और सुन्दर मूर्ति प्रकट हो जाती है। माता-पिता शिक्षक और समाज बालक को इसी प्रकार सँवार कर खूबसूरत व्यक्तित्व प्रदान करते हैं।

व्यक्तित्व-विकास में वंशानुक्रम (Heredity) तथा परिवेश (Environment) दो प्रधान तत्त्व हैं। वंशानुक्रम व्यक्ति को जन्मजात शक्तियाँ प्रदान करता है। परिवेश उसे इन शक्तियों को सिद्धि के लिए सुविधाएँ प्रदान करता है। बालक के व्यक्तित्व पर सामाजिक परिवेश प्रबल प्रभाव डालता है। ज्यों-ज्यों बालक विकसित होता जाता है, वह उस समाज या समुदाय की शैली को आत्मसात् कर लेता है, जिसमें वह बड़ा होता है, व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ते हैं।

प्रवृत्तियों का संयम : चरित्र का आधार

‘चरित्र’ शब्द मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रकट करता है। ‘अपने को पहचानो’ शब्द का वही अर्थ है जो ‘अपने चरित्र को पहचानो’ का है। उपनिषदों ने जब कहा था : ‘आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः; नान्यतोऽस्ति विजानत:,’ तब इसी दुर्बोध मनुष्य-चरित्र को पहचानने की प्रेरणा की थी। यूनान के महान दार्शनिक सुकरात ने भी पुकार-पुकार कर यही कहा था: अपने को पहचानो !

विज्ञान ने मनुष्य-शरीर को पहचानने में बहुत सफलता पाई है। किन्तु उसकी आंतरिक प्रयोगशाला अभी तक एक गूढ़ रहस्य बनी हुई है। इस दीवार के अन्दर की मशीनरी किस तरह काम करती है, इस प्रश्न का उत्तर अभी तक अस्पष्ट कुहरे में छिपा हुआ है। जो कुछ हम जानते हैं, वह केवल हमारी बुद्धि का अनुमान है। प्रामाणिक रूप से हम यह नहीं कह सकते कि यही सच है; इतना ही कहते हैं कि इससे अधिक स्पष्ट उत्तर हमें अपने प्रश्न का नहीं मिल सका है।

अपने को पहचानने की इच्छा होते ही हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि हम किन बातों में अन्य मनुष्यों से भिन्न है। भेद जानने की यह खोज हमें पहले यह जानने को विवश करती है कि किन बातों में हम दूसरों के समान हैं। समानताओं का ज्ञान हुए बिना भिन्नता का या अपने विशेष चरित्र का ज्ञान नहीं हो सकता।

हमारी जन्मजात प्रवृत्तियां

मनोविज्ञान ने यह पता लगाया है कि प्रत्येक मनुष्य कुछ प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है। ये स्वाभाविक, जन्म-जात प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य की प्रथम प्रेरक होती हैं। मनुष्य होने के नाते प्रत्येक मनुष्य को इन प्रवृत्तियों की परिधि में ही अपना कार्यक्षेत्र सीमित रखना पड़ता है। इन प्रवृत्तियों का सच्चा रूप क्या है, ये संख्या में कितनी हैं, इनका संतुलन किस तरह होता है, ये रहस्य अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाए हैं। फिर भी कुछ प्राथमिक प्रवृत्तियों का नाम प्रामाणिक रूप से लिया जा सकता है। उनमें से कुछ ये हैं :

डरना, हंसना, अपनी रक्षा करना, नई बातें जानने की कोशिश करना, दूसरों से मिलना-जुलना, अपने को महत्त्व में लाना, संग्रह करना, पेट भरने के लिए कोशिश करना, भिन्न योनि से भोग की इच्छा—इन प्रवृत्तियों की वैज्ञानिक परिभाषा करना बड़ा कठिन काम है। इनमें से बहुत-सी ऐसी हैं जो जानवरों में भी पाई जाती हैं किन्तु कुछ भावनात्मक प्रवृत्तियां ऐसी भी हैं, जो पशुओं में नहीं है। वे केवल मानवीय प्रवृत्तियां है। संग्रह करना, स्वयं को महत्त्व में लाना, रचनात्मक कार्य में संतोष अनुभव करना, दया दिखाना, करुणा करना आदि कुछ ऐसी भावनाएं हैं, जो केवल मनुष्य में होती हैं।

प्रवृत्तियों की व्यवस्था

बीज-रूप में ये प्रवृत्तियां मनुष्य के स्वभाव में सदा रहती है। फिर भी मनुष्य इसका गुलाम नहीं है। अपनी बुद्धि से वह इन प्रवृत्तियों की ऐसी व्यवस्था कर लेता है कि उसके व्यक्तित्व को उन्नत बनाने में ये प्रवृत्तियां सहायक हो सकें। इस व्यवस्था के निर्माण में ही मनुष्य का चरित्र बनता है। यही चरित्र-निर्माण की भूमिका है। अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का ऐसा संकुचन करना कि वे उसकी कार्य-शक्ति का दमन न करते हुए उसे कल्याण के मार्ग पर चलाने में सहायक हों, यही आदर्श व्यवस्था है और यही चरित्र-निर्माण की प्रस्तावना है।

इसी व्यवस्था का नाम योग है। इसी सन्तुलन को हमारे शास्त्रों ने ‘समत्व’ कहा है। यही योग है-‘समत्वं योग उच्यते’ यही वह योग है जिस ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ कहा है। प्रवृत्तियों में संतुलन करने का यह कौशल ही वह कौशल है जो जीवन के हर कार्य में सफलता देता है। इसी समबुद्धि व्यक्ति के लिए गीता में कहा है :

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।
यह संतुलन मनुष्य को स्वयं करना होता है। इसीलिए हम कहते हैं कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं स्वामी है। वह अपना चरित्र स्वयं बनाता है। चरित्र किसी को उत्तराधिकार में नहीं मिलता। अपने माता-पिता से हम कुछ व्यावहारिक बात सीख सकते हैं, किन्तु चरित्र हम अपना स्वयं बनाते हैं। कभी-कभी माता-पिता और पुत्र के चरित्र में समानता नज़र आती हैं, वह भी उत्तराधिकार में नहीं, बल्कि परिस्थितियों-वश पुत्र में आ जाती है।

परिस्थितियों के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया

कोई भी बालक अच्छे या बुरे चरित्र के साथ पैदा नहीं होता। हां, वह अच्छी-बुरी परिस्थितियों में अवश्य पैदा होता है, जो उसके चरित्र-निर्माण में भला-बुरा असर डालती हैं।

कई बार तो एक ही घटना मनुष्य के जीवन को इतना प्रभावित कर देती है कि उसका चरित्र ही पलट जाता है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण ही बदल जाता है। निराशा का एक झोंका उसे सदैव के लिए निराशावादी बना देता है, या अचानक आशातीत सहानुभूति का एक काम उसे सदा के लिए तरुण और परोपकारी बना देता है। वही हमारी प्रकृति बन जाती है। इसलिए यही कहना ठीक होगा कि परिस्थितियां हमारे चरित्र को नहीं बनातीं, बल्कि उनके प्रति जो हमारी मानसिक प्रतिक्रियाएं होती हैं, उन्हीं से हमारा चरित्र बनता है। प्रत्येक मनुष्य के मन में एक ही घटना के प्रति जुदा-जुदा प्रतिक्रिया होती है। एक ही साथ रहने वाले बहुत-से युवक एक-सी परिस्थितियों में से गुज़रते हैं; किन्तु उन परिस्थितियों को प्रत्येक युवक भिन्न दृष्टि से देखता है; उसके मन में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं होती है। यही प्रतिक्रियाएं हमें अपने जीवन का दृष्टिकोण बनाने में सहायक होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं का प्रकट रूप वह है जो उस परिस्थिति के प्रति हम कार्य-रूप में लाते हैं। एक भिखारी को देखकर एक के मन में दया, जागृत हुई, दूसरे के मन में घृणा। दयार्द्र व्यक्ति उसे पैसा दे देगा, दूसरा उसे दुत्कार देगा, या स्वयं वहां से दूर हट जाएगा। किन्तु यहीं तक इस प्रतिक्रिया का प्रभाव नहीं होगा। यह तो उस प्रतिक्रिया का बाह्म रूप है। उसका प्रभाव दोनों के मन पर भी जुदा-जुदा होगा। इन्हीं नित्यप्रति के प्रभावों से चरित्र बनता है। यही चरित्र बनने की प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया में कुछ लोग संशयशील, कुछ आत्मविश्वासी और कुछ शारीरिक भोगों में आनन्द लेने वाले विलासी बन जाते हैं; कुछ नैतिक सिद्धांतो पर दृढ़ रहनेवाले तपस्वी बन जाते हैं, तो कुछ लोग तुरन्त लाभ की इच्छा करनेवाले अधीर और दूसरे ऐसे बन जाते हैं जो धैर्यपूर्वक काम के परिणाम की प्रतीक्षा कर सकते हैं।

बच्चे को आत्मनिर्णय का अधिकार है

यह प्रक्रिया बचपन से ही शुरू होती है। जीवन के तीसरे वर्ष से ही बालक अपना चरित्र बनाना शुरू कर देता है। सब बच्चे जुदा-जुदा परिस्थितियों में रहते हैं। उन परिस्थितियों के प्रति मनोभाव बनाने में भिन्न-भिन्न चरित्रों वाले माता-पिता से बहुत कुछ सीखते हैं। अपने अध्यापकों से या संगी-साथियों से भी सीखते हैं। किन्तु जो कुछ वे देखते हैं या सुनते हैं, सभी कुछ ग्रहण नहीं कर सकते। वह सब इतना परस्पर-विरोधी होता है कि उसे ग्रहण करना सम्भव नहीं होता। ग्रहण करने से पूर्व उन्हें चुनाव करना होता है। स्वयं निर्णय करना होता है कि कौन-से गुण ग्राह्य हैं और कौन-से त्याज्य। यही चुनाव का अधिकार बच्चे को भी आत्मनिर्णय का अधिकार देता है।

इसलिए हम कहते हैं कि हम परिस्थितियों के दास नहीं है, बल्कि उन परिस्थितियों के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया ही हमारे चरित्र का निर्माण करती है। हमारी निर्णयात्मक चेतनता जब पूरी तरह जागरित हो जाती है और हमारे नैतिक आदर्शों को पहचानने लगती है तो हम परिस्थितियों की ज़रा भी परवाह नहीं करते। आत्म-निर्णय का यह अधिकार ईश्वर ने हर मनुष्य को दिया है। अन्तिम निश्चय हमें स्वयं करना है।

हम अपने मालिक आप हैं; अपना चरित्र स्वयं बनाते हैं। ऐसा न हो तो जीवन में संघर्ष ही न हो; परिस्थितियां स्वयं हमारे चरित्र को बना दें, हमारा जीवन कठपुतली की तरह बाह्य घटनाओं का गुलाम हो जाए। सौभाग्य से ऐसा नहीं है। मनुष्य स्वयं अपना स्वामी है। अपना चरित्र वह स्वयं बनाता है। चरित्र-निर्माण के लिए उसे परिस्थितियों को अनुकूल या सबल बनाने की नहीं बल्कि आत्मनिर्णय की शक्ति को प्रयोग में लाने की आवश्यकता है।

प्रवृत्तियों को रचनात्मक कार्य में लगाओ

किन्तु आत्मनिर्णय की शक्ति का प्रयोग तभी होगा, यदि हम आत्मा को इस योग्य रखने का यत्न करते रहेंगे कि वह निर्णय कर सके। निर्णय के अधिकार का प्रयोग तभी हो सकता है, यदि उसके अधीन कार्य करनेवाली शक्तियां उसके वश में हों। शासक अपने निर्णय का प्रयोग तभी कर सकता है, यदि अपनी प्रजा उसके वश में हो। इसी तरह यदि हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियां हमारे वश में होंगी, तभी हम आत्मनिर्णय कर सकेंगे। एक भी प्रवृत्ति विद्रोही हो जाए, स्वतंत्र विहार शुरू कर दे तो हमारी सम्पूर्ण नैतिक व्यवस्था भंग हो जाएगी। इसलिए हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियां ही हमारे चरित्र की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। उन्हें वश में किए बिना चरित्र-निर्माण का कार्य प्रारम्भ नहीं हो सकता। नैतिक जीवन प्रारम्भ करने से पूर्व हमें उनकी बागडोर अपने हाथ में लेनी होगी। उन्हें व्यवस्था में लाना होगा। इसका यह अभिप्राय नहीं कि उन प्रवृत्तियों को मार देना होगा। उन्हें मारना न तो सम्भव ही है और न हमारे जीवन के लिए अभीष्ट ही। हमें उनकी दिशा में परिवर्तन करके उन्हें रचनात्मक कार्यों में लगाना है। वे प्रवृत्तियां उस जलधारा की तरह हैं जिसे नियन्त्रण में लाकर खेत सींचे जा सकते हैं, विद्युत भी पैदा की जा सकती है और जो अनियन्त्रित रहकर बड़े-बड़े नगरों को भी बरबाद कर सकती है।

स्थितप्रज्ञ कौन है?

इन प्रवृत्तियों का संयम ही चरित्र का आधार है। संयम के बिना मनुष्य शुद्ध विचार नहीं कर सकता, प्रज्ञावान नहीं बन सकता। गीता में कहा गया है कि इन्द्रियों की प्रवृत्तियां जिसके वश में हों—उसी की प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है। प्रज्ञा तो सभी मनुष्यों में है। बुद्धि का वरदान मनुष्य-मात्र को प्राप्त है। किंतु प्रतिष्ठितप्रज्ञ या स्थितप्रज्ञ वही होगा जिसकी प्रवृत्तियां उसके वश में होंगी। इस तरह की सबल प्रज्ञा ही आत्म-निर्णय का अधिकार रखती है। यही प्रज्ञा है जो परिस्थितियों की दासता स्वीकार न करके मनुष्य का चरित्र बनाती है। जिसकी बुद्धि स्वाभाविक प्रवृत्तियों, विषयवासनाओं को वश में नहीं कर सकेगी, वह कभी सच्चरित्र नहीं बन सकता।

बुद्धिपूर्वक संयम ही सच्चा संयम है

यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि हम बुद्धि के बल पर ही प्रवृत्तियों का संयम कर सकते हैं। जीवन के समुद्र में जब प्रवृत्तियों की आंधी आती है तो केवल बुद्धि के मस्तूल ही हमें पार लगाते हैं। विषयों को मैंने आंधी कहा है, इनमें आंधी का वेग है और इनको काबू करना बड़ा कठिन है—इसीलिए यह कहा है। अन्यथा इनमें आंधी की क्षणिकता नहीं है। प्रवृत्तियों के रूप में ये विषय सदा मनुष्य में रहते हैं। उसी तरह जैसे पवन के रूप में आंधी आकाश में रहती है। वही पवन जब कुछ आकाशी तत्त्वों के विशेष सम्मिलन के कारण तीव्र हो जाता है, तो आंधी बन जाता है। हमारी प्रवृत्तियां भी जब भावनाओं के विशेष मिश्रण से तीव्र हो जाती हैं तो तीव्र वासनाएं बन जाती हैं। उनका पूर्ण दमन नहीं हो सकता। बुद्धि द्वारा उन्हें कल्याणकारी दिशाओं में प्रवृत्त ही किया जा सकता है, उनका संयम किया जा सकता है।

संयम की कठिनाइयां

संयम शब्द जितना साधारण हो गया है उसे क्रियात्मक सफलता देना उतना ही कठिन काम है। इस कठिनाई के कारण हैं। सबसे मुख्य कारण यह है कि जिन प्रवृत्तियों को हम संयत करना चाहते हैं वे हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियां है। उनका जन्म हमारे जन्म के साथ हुआ है। हम उनमें अनायास प्रवृत्त होते हैं। इसलिए वे बहुत सरल है। इसके अतिरिक्त उनका अस्तित्व हमारे लिए आवश्यक भी है। उन प्रवृत्तियों के बिना हम कोई भी चेष्टा नहीं कर सकते। उनके बिना हम निष्कर्म हो जाएंगे; निष्कर्म ही नहीं, हम असुरक्षित भी हो जाएंगे। प्रत्येक स्वाभाविक प्रवृत्ति इसी सुरक्षा और प्रेरणा की संदेशहर होती है। उदाहरण के लिए भय की भावना को लीजिए। हम भयभीत तभी होते हैं जब किसी प्रतिकूल शक्तिशाली व्यक्ति या परिस्थिति से युद्ध करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। उस समय भय की भावना हृदय में जागती है और हमें कैसे भी हो, भागकर छिपकर या किसी भी छल-बल द्वारा अपनी रक्षा करने को प्रेरित करती है। यदि हम इस तरह बच निकलने का उपाय न करें तो जान से हाथ धो बैठें अथवा किसी मुसीबत में पड़ जाएं। भय हमें आनेवाले विनाश से सावधान करता है। भय ही हमें यह बतलाता है कि अब यह रास्ता बदलकर नया रास्ता पकड़ो। हम कुछ देर के लिए सहम जाते हैं। प्रत्युत्पन्नमति लोग नये रास्ते का अवलम्ब प्राप्त करके भय के कारणों से बच निकलते हैं। उन्हें अपनी परिस्थिति की कठिनाइयों का नया ज्ञान हो जाता है। उन नई कठिनाइयों पर शान्ति से विचार करके नया समाधान सोच लेते हैं।

भय का भी प्रयोजन है

अत: भय के हितकारी प्रभाव से हम इंकार नहीं कर सकते हैं। किन्तु इस प्रभाव को अस्थायी मानकर इसे क्षणिक महत्त्व देना ही उपयुक्त है। यदि यह भय हमारे स्वभाव में आ जाए तो हम सदा असफल होने की भावना से ग्रस्त हो जाएंगे। भय का अर्थ क्षणिक असफलता का दिग्दर्शन और नये उद्योग की प्रेरणा होनी चाहिए। नई प्रेरणा से मन में नया उत्साह पैदा होगा। जिस तरह शेर पीछे हटकर हमला करता है, मनुष्य ऊंची छलांग मारने के लिए नीचे झुकता है, उसी तरह भय से नई स्फूर्ति और नया संकेत लेने के बाद जब वह नया पुरुषार्थ करने का संकल्प करेगा, तभी भय भाग जाएगा।

जब हमारा भय साथी बन जाता है

निरन्तर असफलता और प्रतिकूलताओं से युद्ध करने की अशक्तता हमारे भय को स्थायी बना देती है। तब हम छोटी से छोटी प्रतिकूलता से भी भयभीत होने लगते हैं। अज्ञानवश हम इन भयप्रद परिस्थितियों को और भी विशाल रूप देते जाते हैं। हमारा अज्ञान हमारे भय का साथी बन जाता है, जिन्हें बादलों में बिजली की कड़क का वैज्ञानिक कारण मालूम नहीं, वे यह कल्पना कर लेते हैं कि दो अलौकिक दैत्य आकाश में भीमकाय गदाओं से युद्ध कर रहे हैं। बिजली का भय उनके लिए अजेय हो जाता है। अनेक प्राकृतिक घटनाओं की भूत-प्रेतों की लड़ाइयां मानकर हम सदा भयातुर रहने का अभ्यास डाल लेते हैं। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, पुच्छलतारा, महामारी आदि भौतिक घटनाएं भयानक मानी जाती थीं। विज्ञान ने जब से यह सिद्ध कर दिया है कि ये घटनाएं मनुष्य के लिए विनाशक नहीं है, तब से संसार के बहुत-से भयों का निराकरण हो गया है।

हम भय की पूजा शुरू कर देते हैं

किन्तु जिन वैज्ञानिकों ने मनुष्य को इन मिथ्या भयों से छुटकारा देने का यत्न किया था उन्हें मृत्यु-दंड तक दिया गया था। बात यह है कि भय की यह भावना मनुष्य को कुछ अलौकिक शक्तियों पर श्रद्धा रखने की प्रेरणा देती है। श्रद्धा में आनन्द है। वही आनन्द भय पैदा करनेवाली वस्तुओं पर श्रद्धा रखने में आने लगता है। इसलिए हमें अपना भय भी आनन्दप्रद हो जाता है। मनुष्य की ये मनोभावनाएं जो उसे कमज़ोर बनाती हैं, जब आनन्प्रद हो जाएं तो समझना चाहिए कि हमारा रोग असाध्य नहीं तो दु:साध्य अवश्य हो गया है। भय से बचने के उपाय सोचने के स्थान पर मनुष्य जब भय की पूजा शुरू कर दे तो भय से मुक्ति की आशा बहुत कम रह जाती है। उस समय भय की प्रवृत्ति मनुष्य को वस में कर लेती है। हमारा ध्येय यह है कि मनुष्य भय की प्रवृत्ति को वश में करें, न कि वह उसका गुलाम बन जाए।

जब भय का भूत विशाल हो जाता है

मनुष्य भय की प्रवृत्ति का दास किस तरह बन जाता है, यह भी एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन है। अगर एक पागल कुत्ता आपका पीछा करता है तो निश्चय ही आपको उस कुत्ते से डर लगने लगता है और आपको उससे डरने की आदत भी पड़ जाती है। यह आदत युक्तियुक्त है। इसका इतना ही मतलब है कि आपको पागल कुत्ते को काबू में करने का उपाय मालूम नहीं है।

किन्तु जब आपको दूसरे कुत्तों से भी भय मालूम होने लगे तो समझ लीजिए कि भय की आदत आपको वश में करने लगी है। जब तक आपको दूसरे कुत्तों के पागल होने का निश्चय न हो तब तक आपको भयातुर नहीं होना चाहिए। किन्तु देखा यह गया है कि कमजोर दिल के आदमी पागल कुत्ते से डरने के बाद सभी कुत्तों से डरना शुरू कर देते हैं। यह डर बढ़ता-बढ़ता यहां तक पहुंच जाता है कि उसे चौपाये से डर लगना शुरू हो जाता है। इस भय को वश में न किया जाए तो उसे भयावह वस्तु से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु से ही भय प्रतीत होने लगता है। मेरे एक मित्र का एक बार अंधेरे कमरे में किसी चीज़ से सिर टकरा गया। उसके बाद उन्हें न केवल उस चीज़ से बल्कि अंधकार से भी डर लगने लगा। भयावह वस्तु के साथ उसकी याद दिलानेवाली हर चीज़ से डर लगने लगता है।

भय का यह क्षेत्र बहुत बढ़ता जाता है और इसका प्रभाव भी मनुष्य के चरित्र पर स्थायी होता जाता है। दुर्भाग्य से यदि उसे भयजनक अनेक परिस्थितियों में से एक साथ गुजरना पड़ता है तो वह सदा के लिए भयभीत हो जाता है; जीवन का हर क्षण मृत्यु का संदेश देता है; हवा की मधुर मरमर में तूफान का भयंकर गर्जन सुनाई देने लगता है और पत्तों के हिलने में प्रलय के तांडव का दृश्य दिखाई देता है। उसका मन सदा विक्षिप्त रहता है। ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी सफल नहीं होता।

निर्भय होने का संकल्प ही भय को जीतने का उपाय है

भय-निवारण के लिए शास्त्रों में ईश-विनय की गई है :

अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
यह प्रार्थना ही मनुष्य को अभयदान नहीं दे सकती। ईश्वर ने मनुष्य को भय पर विजय पाने का साधन पहले ही दिया हुआ है। जिस तरह मनुष्य में प्रतिकूलता से डरने की प्रवृत्ति है, उसी तरह प्रतिकूलताओं से युद्ध करने की और अपनी प्रतिष्ठा रखने की प्रवृत्ति भी है। इन प्रवृत्तियों को जागृत करके मनुष्य जब भय को जीतने का संकल्प कर ले, तो वह स्वयं निर्भय हो जाता है। मनुष्य की एक प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्ति का सन्तुलन करती रहती है। जिस तरह प्रवृत्तियां स्वाभाविक हैं, उसी तरह सन्तुलन भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्राकृतिक अवस्था में यह कार्य स्वयं होता रहता है। किन्तु हमारा जीवन केवल प्राकृतिक अवस्थाओं में से नहीं गुज़रता। विज्ञान की कृपा से हमारा जीवन प्रतिदिन अप्राकृतिक और विषम होता जाता है। हमारी परिस्थितियाँ असाधारण होती जाती है। हमारा जीवन अधिक साहसिक और वेगवान होता जाता है। संघर्ष बढ़ता ही जाता है। जीवित रहने के लिए भी हमें जान लड़ाकर कोशिश करनी पड़ती है। जीने की प्रतियोगिता में केवल शक्तिशाली ही जीतते हैं। योग्यतम को ही जीने का अधिकार है। 1–इस स्थापना से प्रत्येक साधारण व्यक्ति को प्राणों का भय लगा रहता है। यह भय हमारी नस-नस में समा गया है।

Share this article :
Facebook
Twitter
LinkedIn

Leave a Reply