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सहजता – Naturalness

सहजता


जो मुक्त है वही बंध सकता है

जो मुक्त है सिर्फ वही बंध सकता है। जो मुक्त है सिर्फ वही बंध सकता है। जिसके पास मुक्ति ही नहीं वो समर्पण किसका करेगा? कोई गुलाम जाकर ये कह सकता है, कि “आज से मैं तुम्हारा हुआ”? आप गुलाम हो, किसी और के हो, आप ये जा के कह सकते हो, “आज से मैं तुम्हारा हुआ”? तुम अपने ही नहीं हो अभी, तुम्हारा मालिक कोई और है, तुम किसी और के कैसे हो जओगे?

समर्पण का अर्थ

समर्पण का अर्थ है असीम बल। तुम अपनेआप को जो मानते हो वही तुम्हारी कमज़ोरी है। अपनी कमज़ोरी का समर्पण कर दो। प्रार्थना करो और प्रतीक्षा करो कि वो पुकारे। उसकी पुकार ही तुम्हारा आत्मबल बनेगी और तुम भागे चले जाओगे, अपना सारा कचरा पीछे छोड़ कर, यही समर्पण है। वहाँ चालाकी और चतुराई नहीं […]

मैं संतुष्ट क्यूँ नहीं रह पाता?

आनंद तुम्हारा स्वभाव न होता तो तुम्हें अफ़सोस किस बात का होता? तुम दुखी हो और दुःख के अतिरिक्त कोई संभावना ही न रहती, तुम कहते, ‘’ठीक! मैं वैसा ही हूँ, जैसा मैं हो सकता हूँ, और विकल्प क्या है? यही तो मेरी नैसर्गिक अवस्था है और कभी दुःख से कभी ऊबे तो सुख। ठीक है! यही तो खेल है, चल रहा है।’’पर दुःख में तुम टिक पाते नहीं, सुख की आशा रहती हैं; और सुख में तुम टिक पाते नहीं, दुःख की आशंका रहती है। टिक इसलिए नहीं पाते क्यूँकी आसमान है, आनन्द है, वो अपना अहसास कराता रहता है पिंजरे के पक्षी को।

सोच को सच मत मान लेना, सच को आज तक किसी ने सोचा नहीं

तुम्हारी आध्यात्म में और सत्य में रूचि हो कैसे सकती है ?

तुम्हारी केले कि चाट में रूचि है, तुम्हारी मॉल की सेल में रूचि है, तुम्हारी नौ -बजे के धारावाहिक में रूचि है।
तुम वो हो जिनकी इन सब में रूचि है तो आध्यात्म में रुचि होगी क्या ?
क्या यह रूचि का विषय है? क्या तुम चुनाव करोगे कभी भी सत्य के निकट आने का ?
सच तो यह है कि तुम्हारे हाथों में चुनाव जब भी छोड़ा जाएगा तो तुम्हारा एक ही निर्णय होगा, क्या?
सत्य से दूरी।

प्रेम में तोहफ़े नहीं दिए जाते, स्वयं को दिया जाता है

जहाँ प्रेम होता है फ़िर वहाँ लुक्का-छिप्पी नहीं होती। वहाँ ये नहीं होता कि “ये सुन्दर वाली चीज़ है, इतना देखो! ये तो तुम्हारा है। आज विशेष खीर बनी है…”

अब विशेष हो कि निर्विशेष हो, आम हो, ख़ास हो, जो हैं, जैसे हैं, पूरे हैं, तुम्हारे हैं; और ख़बरदार, अगर तुमने कुछ भी ठुकराया!

मेरा शरीर किसलिए है?

क्या कह रहे हैं नानक? – “विदाउट द ट्रू लव ऑफ़ डेवोशन, द बॉडी इज़ विदाउट हॉनर”। वो शरीर जो सत्य की राह में गल जाने को समर्पित नहीं है, उसका कोई मान नहीं, वो व्यर्थ ही है। तुमने यूं ही खा-खा कर के कद बढ़ा लिया है, माँसपेशियाँ फुला ली हैं; व्यर्थ ही है। यही मान है शरीर का, किसी भी वस्तु का यही मान है कि वो अपने से आगे निकल जाए। इसके अलावा और कोई मान नहीं होता,और इससे ऊँचा कोई मान नहीं हो सकता। यही शरीर का मान है, हॉनर, ‘साची लिवै बिनु देह निमाणी’।

ग्रन्थों के साथ सत्संग हो सकता है, तर्क या बहस नहीं

हमें कभी ये दावा नहीं करना चाहिए कि हमारी कही कोई बात या ग्रंथों में लिखी कोई बात आख़िरी सत्य है। क्योंकि वो आख़िरी सत्य नहीं हो सकता। तो इनको आप कभी बहस का मुद्दा मत बनाइये।

इनपर सत्संग हो सकता है; इनको पिया जा सकता है; इनका रसपान किया जा सकता है; पर इनको ले कर के किसी से बहस मत करिएगा।


सच्चा प्रेमी कौन?

सिर्फ़ उसी को नाराज़गी का हक़ है, जो नाराज़ हो ही ना सकता हो।

सिर्फ़ उसी को गति का हक़ है, जो अपनी जगह से हिल ही ना सकता हो।

सिर्फ़ उसी को हज़ारों में खो जाने का हक़ है, जो कभी खो ही ना सकता हो।

सिर्फ़ उसी को रूठने का हक़ है, जिसका प्रेम अनंत हो।


सत्य के साथ हुआ जाता है, फिर जो छूटता हो, छूटे

छोड़ने शब्द से ऐसा लगता है ज्यों छोड़ना महत्वपूर्ण था, ज्यों छोड़ी जा रही वस्तु पर ध्यान था। ऐसे नहीं छूटता। छूटता तब है जब पता भी न चले कि छूट गया। अगर छोड़ना महत्वपूर्ण हो गया तब तुम छोड़ कहाँ रहे हो? तब तो तुमने, बस दूसरे तरीके से, और ज़ोर से पकड़ लिया है।

सत्य के साथ हुआ जाता है, फिर जो छूटता हो, छूटे। परवाह तो तब हो जब हमें पता भी चले।

भक्ति का आधार क्या है?

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‘तुम’ कहा जा रहा है, विधि है, तरीका है।

भक्ति, ‘तुम’ कहते-कहते अंत नहीं हो जाती।

भक्ति का अंत क्या है?

तुम और मैं एक हुए। मैं तुम हुआ, तुम मैं हुए। उसी को फना कहते हैं, उसी को योग कहते हैं, विलय, संयोग, मिलन।

तो भक्ति विधि भर है, और बड़ी ईमानदारी की विधि है।
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तुम्हारी चालाकी ही तुम्हारा बंधन है; जो सरल है वो स्वतंत्र है

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जिन्हें जीवन परम सफ़लता की मस्ती में बिताना हो, वो सफ़लता का प्रयास छोड़ दें।

वो तो बस ज़रा बाहर की आवाज़ों को भुला कर के भीतर की आवाज़ को सुनें और फिर जब वो कहे कि ‘करो’, तो कर डालें।

रुकें ही न।
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जो प्रथम के साथ है उसे पीछेवालों से क्या डर

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कोई भी सम्बन्ध उस दिन डर का सम्बन्ध बन जाता है, जिस दिन उसमें निर्भरता आ जाती है।

तुम किसी पर निर्भर हुए नहीं कि तुम उससे डरना शुरू कर दोगे।

इस नियम को अच्छे से समझ लो।

तुम जिसपर भी निर्भर हो गए, उसका और तुम्हारा रिश्ता डर का हो जाएगा।

प्रेम खत्म हो जाएगा।

चाहते तो यदि कि तुम्हारे रिश्तों में मुक्ति रहे, सहजता रहे, और प्रेम रहे, तो अपने रिश्ते में निर्भरता को मत आने देना।

माया नहीं दीवार ही, माया सत्य का द्वार भी

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माया और मोक्ष में इतना ही अंतर है।

माया कहती है, छोटे की इच्छा से काम चल जाएगा, और मोक्ष कहता है, परम की इच्छा के बिना चलेगा नहीं।

उचित विचार कौन सा?

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हार्दिक आमंत्रण आपको श्री प्रशांत के साथ २२वें अद्वैत बोध शिविर का|

मुक्तेश्वर के पर्वतों में गहन आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करें|
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आवेदन आमंत्रित हैं:

स्रोत की तरफ़ बढ़ो

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सिर को झुकाकर बिल्कुल ऐसे हाथ खोल दो।
आँचल फैला दो, (हाथ खोलते हुए) ठीक ऐसे।
सिर को झुकाकर ग्रहण करो। और उसके बाद फिर कोई कंजूसी नहीं।
दिल खोलकर बाँटो, भले ही उसमें तुम्हें गालियाँ मिलती हों, भले उसमें कोई चोट देता हो –
यही मज़ा है जीने का। जीना इसी का नाम है।

मुफ़्त का लेते हैं, और मुफ़्त में बाँटते हैं – यही हमारा व्यापार है। यही धंधा है हमारा।
क्या धंधा है? मुफ़्त में लो! मुफ़्त में मिलता है।
‘वो’ तुमसे कोई कीमत माँगता ही नहीं।
एक बार तुमने सिर झुका दिया, उसके बाद ‘वो’ कोई क़ीमत नहीं माँगता।
कीमत यही है कि सिर झुकाना पडे़गा। इसके अलावा कोई कीमत माँगता ही नहीं, मुफ़्त में मिलेगा सब।

शिष्य कौन?

आत्मा, उपनिषद, उपवास, कबीर, गुरु, जागृति, जादू, जीवन, ध्यान, पूजा, बोध, मन, मानसिकता, मौन, श्रद्धा, संबंध, सत्य, समर्पण, स्वास्थ्य,
जो दिन-प्रतिदिन की छोटी घटनाओं से नहीं सीख सकता वो किसी विशेष आयोजन से भी सीख पाएगा, इसकी संभावना बड़ी कम है|

बुद्धिमान वही है जो साधारणतया कही गयी बात को, एक सामान्य से शब्द को भी इतने ध्यान से सुने कि उससे सारे रहस्य खुल जाएँ |

जिसने माँगा नहीं उसे मिला है

अपने सपनों को कैसे पूरा करूँ, आत्मा, आनंद, इच्छा, ईश्वर, ईसा मसीह, कर्म, चिंता, जागृति, जीवन, जीवन में उत्साह कैसे लाऊँ, जीसस, डर, त्याग, दुःख, दुनिया, धर्म, परंपरा, पीड़ा, बाइबल, बोध, मृत्यु, मेरा मन क्यों सदा अशांत रहता है, मैं हमेशा डरा हुआ क्यों रहता हूँ, सत्य, समर्पण, स्रोत, ख़ुशी,
हम अपनी ही जड़ों को काटते चले हैं| हमें भय है अपने ही विस्तार से|

किसी ने कहा है कि, “हमें किसी से डर नहीं लगता, हमें अपनी ही अपार सम्भावना से डर लगता है|”

कहीं न कहीं हमें पता हैं कि हम अनंत हैं| कहीं न कहीं, हमें पता है कि क्षुद्रता हमारा स्वभाव नहीं| हम अपनेआप से ही डरते हैं, अपनी ही संभावना से बड़ा खौफ़ खाते हैं| अगर हमें हमारी संभावना हासिल हो गयी, तो होगा क्या हमारे छोटे-छोटे गमलों का? हमें उनसे बाहर आना पड़ेगा|

मैं लड़कियों से बात क्यों नहीं कर पाता?

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ऐसे लोगों से बचना जिन्हें आँख बचा कर बात करने की आदत हो। और बहुत हैं ऐसे। ऐसे क्षणों से भी बचना जिसमें सहज भाव से, निर्मल भाव से, सरल होकर, निर्दोष होकर किसी को देख ना पाओ। ऐसे क्षणों से भी बचना।

एक नज़र होती है जो समर्पण में झुकती है, प्यारी है वो नज़र। और एक नज़र होती है जो ग्लानि में और अपराध की तैयारी में झुकती है, उस नज़र से बचना।

निसंकोच संदेह करो; श्रद्धा अंधविश्वास नहीं

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संदेह समस्या बनता है, सिर्फ आखरी बिंदु पर| वो बिंदु पूर्ण श्रद्धा का होता है| पर आखरी बिंदु पर यहाँ कौन आ रहा है? तो अभी तो संदेह है तो अच्छी बात है| जितना हो सके उतना संदेह करो| और फ़िर उस संदेह को पूरा खत्म होने दो| और याद रखो कि खत्म करने का ये मतलब नहीं हैं, कि उसे दबा दिया जाये| खत्म करना मतलब उसकी पूरी ऊर्जा को जल जाने दो| उसमें जितनी आग थी, तुमने जला दी| समझ रहे हो न?

अब जल गया, खत्म हो गया| संदेह को खत्म होना ही चाहिए|

डर और मदद

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तुम ये इच्छा करो ही मत कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा न हो । तुम ये कहो कि, “जो बुरे से बुरा भी हो सकता हो, मुझमें ये सामर्थ्य हो कि उसमें भी कह सकूँ कि ठीक है, होता हो जो हो ।” लेकिन याद रखना, जो बुरे से बुरे में भी अप्रभावित रह जाए उसे अच्छे से अच्छे में भी अप्रभावित रहना होगा । तुम ये नहीं कह सकते कि, “ऐसा होगा तो हम बहुत खुश हो जायेंगे, लेकिन बुरा होगा तो दुःखी नहीं होंगे ।” जो अच्छे में खुश होगा, उसे बुरे में दुःखी होना ही पड़ेगा । तो अगर तुम ये चाहते हो कि तुम्हें डर न लगे, कि तुम्हें दुःख न सताए, कि तुम्हें छिनने की आशंका न रहे तो तुम पाने का लालच भी छोड़ दो ।

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