Search

अपनी आत्मा को जानना ही ज्ञान है – Knowing your soul is wisdom

अपनी आत्मा को जानना ही ज्ञान है

आज का मनुष्य बहुत साधन संपन्न है। उसे वे सब सुविधाएं हासिल हैं जिनकी उसने कल्पना की थी। पर इतनी सुविधाएं होने के बावजूद जीवन में जिस आनंद और शांति का अनुभव होना चाहिए था, वह हमें हासिल नहीं है। ऐसा क्यों है? जहां तक सुख-दुख का प्रश्न है, तो ये जीवन में धूप-छांव की तरह आते-जाते रहते हैं। लेकिन जो सुकून हमें मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पा रहा है।

हालांकि साइंस की तरक्की हमारी जिंदगी में कोई विशेष बाधक नहीं है। पर्यावरण प्रदूषण आदि मुद्दों को छोड़ दें तो साइंस की बदौलत हुए आविष्कारों ने हमारे जीवन को आसान ही बनाया है। लेकिन ये सारी उपलब्धियां भी वरदान बनने के बजाय अभिशाप बनती जा रही है। विद्वान लोग कहते हैं कि इसका कारण है ज्ञान का न होना।

यह ज्ञान क्या है? अपनी आत्मा को जानना ही ज्ञान है। आत्मा को जानते ही हमें अपने हृदय में बैठे हुए परमात्मा की सत्ता का ज्ञान हो जाता है। इसके बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता। श्रीकृष्ण ने इसी ज्ञान को ‘राजविद्या’ कहा। ‘ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति’ यानी ज्ञान प्राप्त होने पर मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है।

ज्यादातर मनोवैज्ञानिकों का मानना है और प्रयोगों से भी यह साबित हो चुका है कि मनुष्य अपने दिमाग का सिर्फ आठ-दस प्रतिशत ही उपयोग करता है। उसके दिमाग के शेष 90 प्रतिशत क्षमता सुषुप्तावस्था में रहती है। क्यों? इसकी कुछ वजहें हैं। पहली तो यह है कि हमारी बुद्धि में चेतना का अंश सिर्फ 10 प्रतिशत ही रहता है। शेष 90 प्रतिशत चेतना हमारी आत्मा में निहित रहती है। चूंकि बुद्धि में चेतना की मात्रा बहुत थोड़ी है, इसलिए ज्यादातर कर्म हम सकाम भाव से यानी फल की इच्छा के साथ करते हैं। लेकिन जैसे ही हमें ज्ञान प्राप्त होता है और हम चेतना की ओर बढ़ते हैं तो सारा अंधकार मिट जाता है और उस आत्मा का बोध होता है जो कि निलिर्प्त और निरामय है।

पूर्ण चैतन्य के अभाव में हमारी बुद्धि मोहग्रस्त रहती है। लेकिन जब ज्ञान द्वारा हम पूर्ण चैतन्य हो जाते हैं तो संसार का मोह मिट जाता है और हमें आनंदमय आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है। हरेक मनुष्य के जीवन में तेरा-मेरा का द्वंद्व निरंतर चलते रहता है। इस द्वंद्व के कारण हमारा बौद्धिक विकास नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में हमारे दिमाग की 90 प्रतिशत शक्तियां सुषुप्तावस्था में चली जाती हैं। लेकिन जब ज्ञान प्राप्त होता है तो इस शक्ति का जागरण होता है और परम सुख की प्राप्ति होती है।

श्रीमद्भागवत में भीष्म पितामह ने कहा है- अपनी बुद्धि रूपी कुंवारी कन्या भगवान से ब्याह दी, ताकि वह भगवान के पीछे-पीछे चलती रहे। और मन को भैंसे का रूपक मानकर भगवान को दहेज में दे दिया ताकि भगवान उसे अपने वश में कर लें। ऐसा करने से मन, जो कि चंचल है, भगवान के वश में हो जाता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो वह मन संसार के विषयों की हरी-हरी मोह माया रूपी घास चरता और एक दिन यमराज अपने भैंसे पर बैठकर आता और मार-मार कर प्राण निकाल ले जाता।

मन को वश में रखने का के कई उपाय योग में बताए गए हैं। आजकल हालांकि योग को शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने तक ही सीमित माना जाता है। लेकिन सच तो यह है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर हम जो कुछ खोते जा रहे हैं उसे पुन: प्राप्त करने का नाम ‘योग’ है। स्वस्थ शरीर, सही दृष्टिकोण और आत्मज्ञान द्वारा ही आत्मा की अनुभूति होती है। इसलिए जरूरी है कि इस दुर्लभ मनुष्य शरीर को हम व्यर्थ में न गंवाए। जितनी जल्दी हो सके, हम अपने सहज स्वरूप को प्राप्त कर लें। इसमें सिर्फ हमारा खुद का भला नहीं है, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र का भी भला है।

Share this article :
Facebook
Twitter
LinkedIn

Leave a Reply