मूर्तिमान् सत्- Satkatha Ank
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू।
जीह नामु जप लोचन नीरू॥
लखन राम सिय कानन बसहीं।
भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं॥
जिनके जीवन का प्रत्येक कण और प्रत्येक क्षण सर्वथा और सर्वदा ‘सत्’ से ओतप्रोत है, जो ‘सत्’ के परम आदर्श और मूर्तिमान् स्वरूप हैं, जिनका श्रीविग्रह ‘सत्’ स्वरूप श्रीराम-प्रेम से ही बना हुआ है- ‘राम प्रेम मूरति तनु आही।’
-असत्का जिनके जीवन में कभी स्वप्र में भी संस्पर्श नहीं है, जो परम ‘सत्स्वरूप’ राम के भी स्मरण तथा जप के विषय हैं-
( ‘सुमिरत जिनहि राम मन माहीं।’
‘जगु जप रामु रामु जप जेही।’
जिनका दर्शन करके भरद्वाज मुनि प्रयाग वासियों के साथ अपने को भाग्यवान् मानते हैं और उनके दर्शन को
राम दर्शन का फल बतलाते हैं-
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा।लखन राम सिय दरसनु पावा॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा।सहित पयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन मुनि भयऊ॥
‘सुनो भरत! हम वनवासी तपस्वी हैं, उदासीन हैं-हमारा कहीं राग-द्वेष या अपना-पराया नहीं है, न हमें कुछ चाहिये ही। हम किसी हेतु से तुमसे बनावटी बात नहीं कहते-हम झूठ नहीं कहते। हमें तुमसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। हम सत्य कहते हैं कि हमारे समस्त साधनों का सुन्दर फल तो यह हुआ कि हमने सीता-लक्ष्मण सहित राम का दर्शन प्राप्त किया और उस राम दर्शन का महान् फल है तुम्हारा दर्शन। समस्त प्रयाग के साथ हमारा यह सौभाग्य है। भरत! तुम धन्य हो। तुम्हारे यश ने जगत्को जीत लिया।’ यह कहकर मुनि भरद्वाज प्रेम मग्न हो गये। जिनके महत्त्व का दिग्दर्शन कराते हुए परम सिद्ध ज्ञानी जनक महाराज सजल-नेत्र और पुलकित-शरीर होकर मुदित मन से एकान्त में अपनी धर्मपत्नी से कहते हैं-
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू । मोहि लखि परत भरत मत एहू॥
‘हे सुमुखि! सुनयनी! सावधान होकर सुनो।
भरत जी की कथा भव बन्धन से मुक्त करने वाली है। धर्म, राजनीति और ब्रह्म विचार-इन तीनों विषयों में अपनी बुद्धि के अनुसार मेरी गति है। (अर्थात् इनके सम्बन्ध में मैं कुछ जानता हूँ और अपनी सम्मति दे सकता हूँ।)
पर मेरी वह (धर्म, राजनीति और ब्रह्मज्ञान में प्रवेश पायी हुई) बुद्धि भरत की महिमा का वर्णन तो क्या करे, छल
करके भी उसकी छाया तक को नहीं छू पाती। ‘रानी! भरत जी की अपरिमित महिमा है। उसे एक श्रीरामजी ही जानते हैं, पर वे भी उसका वर्णन नहीं कर सकते। ‘लक्ष्मण जी लौट जाएँ और भरत जी वन को जायँ, इसमें सभी का भला है और सबके मन में भी यही है। परंतु देवि! भरत जी और श्रीरामचन्द्र जी का प्रेम और एक-दूसरे का विश्वास हमारी बुद्धि के तर्क में नहीं आते। यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी समता की सीमा हैं, तथापि भरत जी प्रेम और ममता की सीमा हैं। भरत जी ने (श्रीराम के अनन्य प्रेम को छोड़कर) समस्त परमार्थ, स्वार्थ और सुखों की ओर स्वप में भी नहीं ताका है। श्रीराम के चरणों का प्रेम ही उनका साधन है और वही सिद्धि है। मुझे तो बस, भरत जी का यही एकमात्र सिद्धान्त जान पड़ता है।