अहंकार
अहंकार
ओशो,
अहंकार का त्याग कैसे करें ?
यह असंभव है। अहंकार का त्याग नहीं किया जा सकता क्योंकि अहंकार का कोई आस्तित्व नहीं है। अहंकार केवल एक विचार है: उसमें कोई सार नहीं है। यह कुछ नहीं है – यह सिर्फ शुद्ध कुछ भी नहीं है। तुम इस पर भरोसा करके इसे वास्तविकता दे देते हो। तुम भरोसा छोड़ सकते हो और वास्तविकता गायब हो जाती है, लुप्त हो जाती है।
अहंकार एक तरह का अभाव है। अहंकार इसलिए है क्योंकि तुम स्वयं को नहीं जानते। जिस क्षण तुम स्वयं को जान लेते हो, कोई अहंकार नहीं पाओगे। अहंकार अंधकार के समान है; अंधकार का अपना कोई सकारात्मक आस्तित्व नहीं होता; यह बस प्रकाश का अभाव है। तुम अंधकार से लड़ नहीं सकते, या लड़ सकते हो? तुम अंधकार को कमरे के बाहर नहीं फेंक सकते; तुम उसे बाहर नहीं निकाल सकते, तुम उसे भीतर नहीं ला सकते। तुम अंधकार के साथ सीधे-सीधे कुछ नहीं कर सकते, इसके लिए तुम्हे प्रकाश के साथ कुछ करना होगा। यदि तुम प्रकाश करो तब अंधेरा नहीं रह जाएगा; यदि तुम प्रकाश बुझा दो, वहां अंधेरा है।
अंधकार प्रकाश का अभाव है, अहंकार भी ऐसा ही है: आत्म-ज्ञान का अभाव। तुम उसका त्याग नहीं कर सकते। तुम्हे बार-बार ये कहा गया है: “अपने अहंकार को मारो”–और यह वाक्य साफ तौर पर बेतुका है, क्योंकि जिस चीज का कोई आस्तित्व ही नहीं उसका त्याग भी नहीं किया जा सकता। और यदि तुम उसका त्याग करने की कोशिश भी करोगे, जो उपस्थित ही नहीं है, तो तुम एक नया अहंकार पैदा कर लोगे–विनम्र होने का अहंकार, निरहंकार होने का अहंकार, उस व्यक्ति का अहंकार जो सोचता है कि उसने अपने अहंकार का त्याग दे दिया। यह फिर से एक नए प्रकार का अंधकार होगा।
नहीं, मैं तुमसे अहंकार का त्याग करने के लिए नहीं कहता। इसके विपरीत, मैं कहूंगा कि यह देखने की कोशिश करो कि अहंकार है कहां? इसकी गहराई में देखो; इसे पकड़ने कि कोशिश करो कि आखिर यह है कहां, या फिर यह वास्तविकता में है भी या नहीं। किसी भी चीज का त्याग करने से पहले उसकी उपस्थिति का पक्का कर लेना चाहिए।
पर आरम्भ से ही इसके विरोध में ना चले जाओ। यदि तुम इसका विरोध करते हो तो तुम इसको गहराई से नहीं देख सकोगे। किसी भी बात के विरोध में जाने की आवश्यकता नहीं है। अहंकार तुम्हारा अनुभव है–स्पष्ट दिख सकता है पर है तो तुम्हारा अनुभव ही। तुम्हारा पूरा जीवन अहंकार की घटनाओ के आस-पास घूमता है। हो सकता है यह सब स्वप्न हो, पर तुम्हारे लिए तो यह बिल्कुल सत्य है।
इसका विरोध करने की कोई जरूरत नहीं। इसमें गहरी डुबकी लगाओ, भीतर प्रवेश करो। इसमें प्रवेश करने का अर्थ है अपने घर में जागरूकता ले आना, अंधकार में प्रकाश ले आना। सावधान रहो सतर्क रहो। अहंकार के ढंगो को देखो, यह कैसे काम करता है, आखिर कैसे यह संचालित करता है। और तुम हैरान हो जाओगे; जितने गहरे तुम इसमें जाते हो यह उतना ही दिखाई नहीं पड़ता। और जब तुम अपने भीतरतम के केंद्र में प्रवेश कर जाते हो, तुम कुछ बिल्कुल ही अलग बात पाओगे जो कि अहंकार नहीं है। जो कि निरहंकारिता है। यह स्वयं का भाव है, स्वयं की पराकाष्ठा है –यह भगवत्ता है। तुम अब एक अलग सत्ता के रूप में मिट गए; अब तुम कोई निर्जन द्वीप नहीं हो, तुम पूर्ण का हिस्सा हो।
मैं तुम्हें पूर्ण और प्रामाणिक व्यक्ति बनना सिखा रहा हूं जो अत्यधिक आत्म-सम्मान से भरा है। यह शब्द ‘आत्म-सम्मान’ तुम्हारे भीतर संदेह पैदा कर सकता है क्योंकि यह अहंकार जैसा अर्थ रखता प्रतीत होता है। ऐसा नहीं है। तुम्हें दोनों शब्दों को समझना होगा, आत्म और सम्मान; दोनों महत्वपूर्ण हैं।
‘आत्म’ वह है जिसके साथ तुम पैदा हुए हो। ‘अहंकार’ वो है जिसे तुम एकत्रित करते हो; अहंकार तुम्हारी उपलब्धि है।
स्वयं का भाव तुम्हें आस्तित्व द्वारा मिली भेंट है। तुमने उसे अर्जित करने के लिए कुछ नहीं किया है, तुमने उसे हासिल नहीं किया है; इसलिए उसे तुमसे कोई भी छीन नहीं सकता। यह असंभव है क्योंकि यह तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हारा निज होना।
अहंकार वो सब है जो तुम एकत्रित करते जाते हो, शिक्षा द्वारा, शिष्टाचार द्वारा, सभ्यता, रीती-रिवाज़, विद्द्यालयों, विश्व-विद्यालयों… तुम एकत्रित करते हो। यह तुम्हारा प्रयास है, तुमने इसे बनाया है, और तुमने इसे इतना बड़ा बना दिया है की तुम खुद की असलियत को पूरी तरह से भूल गए हो।
अपने वास्तविक सत्य को जान लेना पर्याप्त होता है: अहंकार, बिना किसी प्रयास के हार मान लेता है और उलटे मुंह जमीन पर गिर जाता है। जब तक के अहंकार बिना तुम्हारे प्रयास के अपने आप से नहीं गिर जाता, यह तुम्हें छोड़ेगा नहीं। यदि तुमने इसको गिराने के लिए प्रयास किया, और यही समर्पण है…सभी धर्म समर्पण सिखाते हैं, इसीलिए मैं कहता हूं उन्हें मनोविज्ञान की बुनियादी समझ तक नहीं है। अहंकार का समर्पण नहीं करना होता, उसका साक्षी बनना होता है। उसे पूरा-पूरा जानना होता है।
यही है ‘रिस्पेक्ट’ का अर्थ। यह इंग्लिश के बहुत से सुन्दर शब्दों में से एक है। इसका अर्थ वह नहीं है जो प्रचलन में है: ‘आदर’। नहीं–रिस्पेक्ट का साधारण सा अर्थ है: ‘री-स्पेक्ट’ (re-spect), फिर से देखना। यही है इसका शाब्दिक अर्थ; इसमें आदर जैसे शब्द के लिए कोई जगह नहीं है। फिर से देखना, लौट के देखना, गहरे देखना। ‘स्पेक्ट’ (spect) का अर्थ है देखना; ‘री’ (re) का अर्थ है दौबारा। जिसका, तुम्हें कभी पता था।
तुम्हें उसके बारे में इससे भी पहले से पता था जब तुम एक समाज, रीती-रिवाज, और सभ्यता में प्रवेश कर के उसका हिस्सा बने। यह कोई संयोगवश नहीं है कि लोग इस सोच में रहते हैं कि उनका बचपन बहुत सुन्दर था। वह एक भूली-बिसरि याद है, क्योंकि तुम्हारे जीवन में कुछ रहे हैं कुछ प्रारंभिक दिन, जो तुम्हें ठीक से याद नहीं हैं; बस एक हलकी सी अनुभूति, एक भीनी सी खुशबू की तरह, एक परछाई की तरह वह वहां मौजूद है।
यदि तुम री-स्पेक्ट (re-spect) करते हो, यदि तुम फिर से देखते हो और अपने आस्तित्व की गहराई में उतरते हो, तो तुम एक जगह पाओगे जहां से तुमने स्वयं को खोना और अहंकार को अर्जित करना आरम्भ किया था।
वो पल रोशनी का एक पल होता है, क्योंकि एक बार यदि तुमने देख लिया कि अहंकार क्या है, तब खेल समाप्त हो जाता है।
तो मैं तुम्हे यह नहीं कह सकता, कि अहंकार को गिरा दो, क्योंकि इसका तो यह अर्थ हुआ कि मैंने तुम्हारे अहंकार की वास्तविकता को स्वीकार कर लिया। और तुम उसे गिरा कैसे सकते हो–जब कि तुम ही वह हो। इस क्षण में तुम ही अहंकार हो। स्वयं को तो तुमने कहीं पीछे अतीत में छोड़ दिया है। तुम में और तुम्हारे आस्तित्व में एक बहुत बड़ा अंतर है। इस क्षण में तुम अपनी परिधि पर जी रहे हो। उस परिधि पर तुम जीने का नाटक कर रहे हो। यह नाटक करने वाला ही अहंकार है। अब इस अहंकार को कहना कि, “गिर जाओ!, समर्पण कर दो!, विनम्र बनो” निपट मूढ़ता है।
यह बड़ा ही विरोधाभासी दिखाई पड़ेगा, किन्तु यह सत्य है–इससे पहले तुम्हारा अहंकार छूटे, तुम्हें इसे अपनाना होगा। एक पका हुआ फल ही धरती पर गिरता है। उसका पका हुआ होना ही पर्याप्त होता है। एक अधपका अहंकार छोड़ा नहीं जा सकता, नष्ट नहीं किया जा सकता। और यदि तुम एक अधपके अहंकार को नष्ट करने या गला देने के लिए संघर्ष करोगे तो तुम्हारा सारा प्रयास विफल हो जायेगा। इसे नष्ट करने की बजाय तुम इसे नए और सूक्ष्म तरीके से और अधिक मजबूत पाओगे।
यह समझने योग्य एक बहुत ही आधारभूत बात है–अहंकार अपने शिखर पर आ जाए, वह मजबूत हो जाए, और एक अखंडता हासिल कर ले –केवल तभी तुम उसे पिघला सकोगे। एक दुर्बल अहंकार को पिघलाया नहीं जा सकता। और यह एक समस्या बन जाता है।
पूरब में सभी धर्म निरहंकारिता का उपदेश देते हैं तो पूरब में आरम्भ से ही सभी अहंकार के विरोध में होते हैं। और इस विरोधपूर्ण रवैय्ये के कारण, अहंकार कभी भी मजबूत नहीं हो पाता, पूर्णता के उस बिंदु पर नहीं पहुंच पाता जहां उसका त्याग किया जा सके। वह कभी पकता नहीं। तो पूरब में अहंकार को पिघलाना बहुत कठिन, लगभग नामुमकिन हो गया है।
पश्चिम में धर्म और मनोविज्ञान की पूरी पश्चिमी परंपरा लोगो को अहंकार मजबूत करने के लिए प्रेरित करती है, प्रचार करती है, उकसाती है–क्योंकि जब तक तुम्हारे पास एक मजबूत अहंकार नहीं होगा, तुम जीवन संघर्ष कैसे करोगे? जीवन एक संघर्ष है; यदि तुम अहंकार-रहित हो जाओगे तो तुम नष्ट हो जाओगे, तब विरोध कौन करेगा? लड़ेगा कौन? प्रतिस्पर्धा कौन करेगा? और जीवन निरंतर एक प्रतिस्पर्धा है। पश्चिमी मनोविज्ञान कहता है: अहंकार को अर्जित करो, इसमें प्रबल हो जाओ।
परंतु पश्चिम में अहंकार को गला देना बहुत ही सरल है। तो जब भी एक पश्चिमी साधक को समझ में आता है की अहंकार ही समस्या है तब वह उसे किसी पूरब के साधक से ज्यादा आसानी से गला देता है। यह एक विरोधाभास है– पश्चिम में अहंकार सिखाया जाता है, पूरब में निरहंकार। किन्तु पश्चिम में अहंकार को गलाना ज्यादा सरल है, और पूरब में बहुत कठिन।
तुम्हारे लिए यह कार्य कठिन होगा, पहले कुछ अर्जित करना और फिर उसे खो देना– क्योंकि तुम वही खो सकते हो जो तुम्हारे पास है। लेकिन जो चीज तुम्हारे पास है ही नहीं, उसे भला तुम कैसे खो सकते हो।
ओशो,
अहंकार के समर्पण के लिए हम अपनी और से क्या कर सकते हैं, जब समर्पण करने की यह इच्छा अपने आप में उसका एक आतंरिक हिस्सा है?
अहंकार एक पहेली है। यह कुछ अंधकार जैसा है–जिसे तुम देख सकते हो, अनुभव कर सकते हो, जो तुम्हारे मार्ग में बाधा है पर उसका कोई आस्तित्व नहीं है। उसमें कोई सकारात्मकता नहीं है। वह केवल एक अभाव है, प्रकाश का अभाव। अहंकार का कोई आस्तित्व नहीं है – भला उसका समर्पण कैसे कर सकते हो। अहंकार केवल जागरूकता का अभाव है।
कमरे में घना अंधेरा है। तुम चाहते हो कि अंधेरा कमरे से चला जाए। तुम वह सब कुछ कर सकते हो जो तुम्हारे बस में है – उसे बाहर धक्का दो, उससे लड़ो – परंतु उससे जीत नहीं सकते। बहुत हैरत की बात है, कि तुम उस चीज से पराजित हो जाओगे जिसका कोई अस्तित्व नहीं है। थक कर तुम्हारा मन कहेगा कि अंधेरा इतना शक्तिशाली है कि इसे दूर करना, इसे भगाना तुम्हारी क्षमता के बाहर है। लेकिन यह निष्कर्ष सही नहीं है; यह जर्मन है, लेकिन यह सही नहीं है।
बस जरुरत है भीतर एक दिया जलाने की। अंधकार को भगाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें उससे लड़ने की आवश्यकता नहीं है–यह निपट मूर्खता है। बस एक दिया ले आओ, और अंधकार नहीं मिलेगा। ऐसा नहीं कि वह बाहर चला जाएगा–वह कहीं जा नहीं सकता, क्योंकि पहली बात तो ये की उसका कोई आस्तित्व ही नहीं। ना तो वह भीतर था, ना ही वह बाहर जाता है।
प्रकाश भीतर आता है, प्रकाश बाहर चला जाता है; उसका एक सकारात्मक अस्तित्व है। तुम दिया जला सकते हो और अंधकार नहीं रहता; तुम दिया बुझा सकते हो और अंधकार आ जाता है। अंधकार के साथ कुछ करने के लिए, तुम्हें प्रकाश के साथ कुछ करना पडेगा–बहुत विचित्र बात है, बहुत बेतुकी भी, पर तुम कर क्या सकते हो? चीजों का यही स्वभाव है।
तुम अहंकार का समर्पण नहीं कर सकते, क्योंकि यह होता ही नहीं। तुम थोड़ी जागरूकता ला सकते हो, थोड़ा चैतन्य, थोड़ा प्रकाश। अहंकार के बारे में बिल्कुल भूल जाओ; अपने भीतर जागरूकता लाने पर पूरा ध्यान लगा दो। और जिस क्षण तुम्हारी चेतना इकट्ठी होकर एक आग की लपट बन जाएगी, तुम्हें अहंकार ढूंढने से भी नहीं मिलेगा।
तुम जागरूक नहीं हो तो तुम समर्पण नहीं कर सकते और तुम जागरूक हो तो इसका समर्पण नहीं कर सकते। एक अज्ञानी समर्पण नहीं कर सकता। और बुद्धिमान व्यक्ति समर्पण की सोच भी नहीं सकता क्योंकि इसका अस्तित्व ही नहीं।
अहंकार एक मृगतृष्णा है–जो सिर्फ लगता है कि है। और जब तुम आध्यात्मिक रूप से गहरी नींद में होते हो, तब वह बहुत प्रबल हो जाती है; स्वाभाविक है वह तुम्हारे लिए समस्या खड़ी कर देती है। तुम्हारा सारा कष्ट इसके द्वारा निर्मित हो जाता है, तुम्हारा तनाव, तुम्हारी चिंताएं। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे जीवन में पूरा नरक खड़ा कर देता है। स्वाभाविक है कि तुम उसका समर्पण करना चाहते हो। और पूरी दुनिया में धार्मिक पंडित और गुरु तुम्हें समझाते हैं कि कैसे इसका समर्पण करना है।
जो भी तुम्हे अहंकार का समर्पण करने के लिए कहता है, वह मूर्ख है। उसे अहंकार के स्वभाव के बारे में कुछ भी पता नहीं, पर वह तुम्हे तर्कसंगत लगेगा; वह विश्वसनीय लगेगा। वह तुम्हे आकर्षित करेगा क्योंकि वह तुम्हारी ही सोच को जोर से कहेगा। वह तुम्हारा प्रवक्ता है–यही तुम्हारा मन भी कहता है। बात करने में वह तुमसे ज्यादा निपुण है, और अपने समर्थन में वह शास्त्रों से सब तरह के विवाद, सबूत और व्याखान सामने ले आता है, जो सब एक ही बात कहते हैं, “जब तक तुम अहंकार को गिरा नहीं देते तुम आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते।” स्वाभाविक रूप से, कोई भी इस तरह के लोगों का विरोध नहीं करता।
पर मैं तुमसे कहता हूं की वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है: ऐसा नहीं है कि तुम अहंकार का समर्पण करते हो और आत्मज्ञान उपलब्ध हो जाता है, नहीं। आत्मज्ञान पहले होता है, और तब तुम अहंकार को नहीं पाते।
यही है उसका समर्पण।