महाभारत का युद्ध निश्चित हो गया था । दोनों पक्ष अपने-अपने मित्रों सम्बन्धियों सहायक को एकत्र करने मे लग गये थे । श्रीकृष्ण चन्द्र पाण्ड के पक्ष में रहेंगे यह निश्चित था किंतु सभी कौरव वीर इसी सत्य से भयभीत थे । श्री कृष्ण यदि चक्र उठा लें उनके सामने दो क्षण भी खडा होने वाला उन्हें दीखती नहीं था और उनकी नारायणी सेना-विश्व की वह सर्वश्रेष्ठ सेना क्या उपेक्षा कर देने योग्य है ? “कुछ भी हो, जितनी सहायता श्री कृष्ण से पायी जा सके पाने का प्रयत्न करना चाहिये । यह सम्मति थी शकुनि-जैसे सम्मति देने वालों की इच्छा न होने पर भी स्वयं दुर्योधन द्वारकाधीश को रण-निमन्त्रण देने द्वारका पहुँचे ।
अर्जुन भी उपप्लन्य नगर से चले थे रण-निमन्त्रण देने । वे भी पहुँचे द्वारकेश के उसी कक्ष में । श्यामसुन्दर को शयन करते देखकर वे उनके चरणों पास खड़े हो गये और उन भुवन सुन्दर की यह शयन झाँकी देखने लगे आत्म विस्मृत होकर सहसा श्रीकृष्णचन्द्र ने नेत्र खोले । सम्मुख अर्जुन को देखकर पूछने लगे–धनञ्जय ! कब आये तुम ? कैसे आये है . दुर्योधन डरे कि कहीं अर्जुन को ये कोई वचन न दे दें । बैठे-बैठे ही वे बोले-वासुदेव ! पहिले मैं आया हैं आपके यहाँ अर्जुन तो अभी आया है ।
आप !! बायीं ओर से सिर को पीछे घुमाकर जनार्दन ने देखा दुर्योधन को और अभिवादन करके पूछा-कैसे पधारे आप है। । दुर्योधन ने कहा-आप जानते ही हैं कि पाण्डवों से हमारा युद्ध निश्चित है । आप मेरे सम्बन्धी हैं । मैं युद्ध में आपकी सहायता मॉगने आया हूँ ।
अर्जुन! तुम हो। अब अर्जुन से पूछा गया तो वे बोले आया तो मैं भी इसी उद्देश्य से हूँ । बडे गम्भीर स्वर में द्वारका नाथ बोले-आप दोनों हमारे सम्बन्धी हैं । इस घरेलू युद्ध में किसी पक्ष से युद्ध करना मुझे प्रिय नहीं है । मैं इस युद्ध मे शस्त्र नहीं ग्रहण करूंगा । एक और मैं शस्त्रहीन रहूँगा और एक ओर मेरी सेना शस्त्र-सज्ज रहेगी । परंतु राजन् । अर्जुन को मैने पहिले देखा है और वे आपसे छोटे भी हैं अतः पहिले अर्जुन को अवसर मिलना चाहिये कि वे दोनों में से जो चाहें अपने लिये चुन लें।
अर्जुन को तो जैसे वरदान मिला। वे डर रहे थे कि कहीं पहिलो अवसर दुर्योधन को मिला और उसने वासुदेव को ले लिया तो अनर्थ ही हो जायगा। उन्होंने बड़ी आतुरता से कहा-आप हमारी ओर रहें। दुर्योधन का मुख सूख गया था द्वारकेश के निर्णय से। वे सोचने लगे थे जब ये शस्त्र उठायेंगे ही नहीं, तब युद्ध में इन्हें लेकर कोई करेगा क्या । उल्टे कोई-न-कोई उपत्र खडा किये रहेंगे ये । कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन सेना ले ले और ये हमारे सिर पड़े। अर्जुन की बात सुनते ही दुर्योधन आसन से उत्साह् के मारे उठ खड़े हुए–“हाँ, हाँ, ठीक है ! स्वीकार है हमें ! आप पाण्डव पक्ष में रहें और नारायणी सेना को आज्ञा दें हमारे पक्ष में प्रस्थान करने की। भगवान् ने पहले ही वामदृष्टि से देख लिया था उनकी ओर, इससे भगवान् को न पाकर प्रसन्न हो गये। दुर्योधन के सामने ही सेना को आदेश भेज दिया गया। जब वे प्रसन्न होकर चले गये, तब हँसकर मधुसूदन अर्जुन से बोले-पार्थ ! यह क्या बचपन किया तुमने ! सेना क्यों नहीं ली तुमने ! मैंने तो तुमको पहिले अवसर दिया था। मैं शस्त्र उठाऊँगा नहीं, यह कह चुका हैं। मुझे लेकर तुमने क्या लाभ सोचा । तुम चाहो तो यादव शूरों की एक अक्षौहिणी सेना अब भी मेरे बदले ले सकते हो।
अर्जुन के नेत्र भर आये। वे कहने लगे-माधव ! आप मेरी परीक्षा क्यों लेते हैं। मैंने किसी लाभ को सोचकर आपको नहीं चुना है । पाण्डवो की जय हो या न हो किंतु हम आपको छोड़कर नहीं रह सकते है। आप तो हमारे प्राण हैं । आपसे रहित आपका बल हमें नहीं चाहिये । हम तो आपके हैं आपके समीप रहना चाहते हैं ।
क्या कराना चाहते हो तुम मुझसे हँसकर पूछा वासुदेव ने और हँसकर ही अर्जुन ने उत्तर दिया-‘सारथि बनाऊँगा आपको । मेरे रथ की रश्मि हाथ मे लीजिये और मुझे निश्चिन्त कर दीजिये।
जो अपने जीवन-की डोर भगवान् के हाथ में सौंप देता है, उसकी लौकिक तथा पारमार्थिक विजय निश्चित है