कल्पित मिथ्या स्वरूप
अपना आपा भूलकर, दूजे के सिर होय।
ऐसे मूर्ख पुरुष का, मान करे ना कोय॥
इस भूल को हम एक उदाहरण द्वारा समझाते हैं। एक बार चार मित्र विदेश यात्रा को गये। उनमें से एक नाई, दूसरा गंजा, तीसरा भौंदू और चौथा डिल्लू था। चलते चलते वे रात्रि होने पर घोर वन में ठहरे। दस बजे तक चारों जागते रहे। बारह बजे नाई भौंदू को जगाकर स्वयं सो जाता है। भौंदू दो बजे गंजे को जगाकर स्वयं सो जाए। गंजा चार बजे डिललू को जगाकर स्वयं सोये, डिल्लू छः बजे सबको जगाये जिससे आगे की यात्रा की जा सके ।
धीरे-धीरे उसका सिर टमाटर की तरह चिकना हो गया। इतने में बारह बज गये । नाई ने भौंदू को जगा दिया। भौंदू ने उठकर सिर पर हाथ फेरा तो उसे अपना सिर चिकना जान पड़ा। सिर पर बाल न देखकर भौंदू आग बबूला हो गया और नाई को गाली देकर कहने लगा कि तुम्हें चाहिए था कि तुम मुझे जगाते परन्तु तुमने मुझे न जगाकर इस गंजे को क्यों जगाया। नाई बोला मैंने तुम्हें ही जगाया है, परन्तु भौंदू बोला नहीं-नहीं तुमने गंजे को जगाया है।
पाठक गण जिस तरह सिर पर बाल ने रहने के कारण भौंदू ने अपने को गंजा मान लिया, उसी प्रकार तुम अपने अक्ल रूपी स्वरूप ब्रह्मत्व को भूल गये और अपने अल्प शांति शरीर मात्र व्यापक ब्रह्म से हमेशा पृथक रहने वाला जीव मान लिया।
भावार्थ यह है कि निगुर्ण ब्रह्म ही माया के गुणों में प्रवेश कर जीव बनता है और वह जीव देव, देत्य, असुर, मनुष्य आदि का शरीर धारण करके दूसरों को मारता है या दूसरों के द्वारा स्वयं मारा जाता है। इससे भी इस जीव का ब्रह्म से आना सिद्ध होता है। भगवान वेद व्यास जी ने हजारों स्थलों में मूल भागवत महापुराण में स्पष्ट कर दिया है कि जीव का आगमन ब्रह्म से हुआ है, परन्तु व्यक्ति इस आत्मज्ञान के समझने में गलती करता है। वह अपने स्वरूप को हमेशा के लिए भूल जाता है। इसी भूल को समझाने के लिए उपरोक्त दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है।