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नित्य-दम्यति [ श्रीराधा-कृष्ण-परिणय ] -Daily routine [ God Shree Krishna The Result]

नित्य-दम्पति 
[ श्रीराधा-कृष्ण-परिणय ] 
नित्य आनन्दघन, नित्यनिकृञ्जबिहारी श्रीनन्दनन्दन धरापर आबिर्मूत हुए और उनके साथ ही पधारों व्रजधरापर उनकी महाभाबरूपा आनन्दशक्ति श्रीराधा। भगवान्के आनन्दस्वरूपका नाम आहादिनी शक्ति है, इसका सार नित्य प्रेम है, प्रेमका सारसवंस्व महाभाव है और महाभाबरूपा हैं श्रीराधाजी । ये भगवान् श्रीकृष्णसे नित्य अथिन्न परंतु नित्य लीलाविहारकौ दिव्य मूर्ति हैं । माता कोर्सिकी वे प्राणप्रीय पुत्री, बाबा बृषभानुकौ कुमारी, घृहत्सानु (बरसाने) -की श्रीव्रज़धरापर आयी थीं जगत्क्रो विशुद्ध प्रेमका आदर्श देने । उनके हदयधन श्रीयशोदानन्दन चाहे जितने रूप लें, चाहे जितने कार्यं करें; किंतु वै प्रेमसारसर्वस्व महाभावस्वरूपा-वे तो केवल भावमयी हैं । प्रेम कहते किसे हैं…चाह्य रूपसे जगत्क्रो उन्हें यही सिखलाना था । 
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Daily Routine [God Shri Krishna The Result]
नित्यकौमार्यं-श्रीराधाने व्रजधरापर नित्यकौमार्य रूप स्वीकार किया । वे चिरकुमारिका रही लोकदूष्टिमें । श्रीनन्दनन्दन केवल ग्यारह वर्ष कुछ मासकौ वयमें व्रजसे चले गये और गये सो गये । व्रज लौटनेका अवसर ही कहाँ मिला उम्हें । चिरविरहिणी, श्रीकृष्णप्राणा श्रीराधा-उन नित्य आहादमयीने यह वियोगिनी मूर्ति न स्वीकार की होती-महाभावक्री परम भूमि, प्रैमकी चरम-मूर्ति विश्वमानसमें अदृश्य ही रह जाती । 
समाजकी दृष्टिमें श्रीराधा नित्य कुमारी रहीं; किंतु श्रुतियो’के संरक्षकको मर्यादाकौ रक्षा तो करनी ही थीं । श्यामसुन्दरकी वे अभिन्न सहचरी, वे शास्त्रदृष्टिसे धरापर उनसे अभिन्न न हों, यह कैसे हो सकता था । नन्दनन्दनने उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया और उस पाणिग्रहणके पुरोहित, साक्षी थे स्वयं जगत्सष्टा 
लोकपितामह । 
श्रीराधा लोकदृष्टिसे नन्दनन्दनसे कुछ बडी थीं । वनमें व्रजेश्वर नन्दरायजी अपने कुमारके साथ गये थे, सम्भवत: गायोंका निरीक्षण करना था उन्हें । श्रीवृषभानुजी भी पहुँचे थे इसी कार्यंसे और वन तथा गौओँके अवलोकनका कुतूहल लिये उनकी लाडिली भी उनके साथ आयी थीं । सघन मेघोंसे सहसा आकाश आच्छादित ही गया, लगता था कि शीघ्र ही वर्षा होगी । श्रीव्रजेश्वरकौ लगा कि वच्चोंक्रो घर चले जाना चाहिये । उन्होंने कीर्तिकृमारीक्रो पुचकारा’बेटो! तू घर चली जा । देख, वर्षा आनेवाली है । कन्हाईंक्रो अपने साथ ले जा । मैं तेरे बाबाके साथ थोडी देरमेँ लौटता दूँ।” 
व्रजेश्वस्का अनुरोध संकोचमयी वृषभानुनन्दिनीने स्वीकार कर लिया । मोहनक्रो साथ लेकर लौटीं; किंतु एकान्तपें उन दोनोंका नित्यस्वरूप छिपा कैसे रह सकता है । नन्दनन्दनका बालरूप अदृश्य हो गया और वे नित्य-किशोर-रूपमें प्रकट हो गये । कीर्तिकुमारीकी मूर्ति भी अब किशोरी-मूर्ति हो चुकी थी । इसी समय गगनसे अपने उज्वल हंसपर बैठे ब्रह्माजी उतरे । उन्होंने हाथ जोडकर प्रार्थना कौ-‘ श्रुतिकौ मर्यादा आज सौंभाग्यधूषित हो जाय और इस सेवकको भी सुअवसर प्राप्त हो । व्रजधरापर आप दोनोंका सविधि परिणय करानेक्रो अनुमति मिले मुझे ।’ 
मन्दस्मितसे दोनोंने एक-दूसरैकी और देखा । पुणित लताएँ झुक उठी । जिनका संकल्प क्रोटि-क्रोटि ब्रह्माण्डोकी सृष्टि करता है, उनके लिये-उनके विवाहके लिये योगमायाक्रो सामग्री प्रस्तुत करनेमेँ कितने क्षण लगते 
थे । अग्रि प्रज्वलित करके व्रह्माजीने मन्त्रपाठ किया । आसनपर आसीन हुए । धन्य हो गमे मृष्टिकर्ताके आदौ अप्रिकी सात प्रदक्षिणा करायी। पाणिग्रहण, सिंदूरदान लोचन । ये साथ जोडे अपलक देख रहे थे स्य अनुपम आदि संस्कार सबिधि सम्पन्न हुए । नित्य-दम्यति एक सौन्दर्य-राशिक्रो । यर-वधू-वेघामैँ यह युपरनमृर्तिष्ण ; 
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