एक बार महाराज जनकने एक बहुत बड़ा यज्ञ किए उसमें उन्होंने एक बार एक सहस्र सोनेसे मढ़े हुए रूगोंवालो बढ़िया दुधारी गौओंकी ओर संकेत करके कहा–‘ पूज्य ब्राह्मणो। आपमें जो ब्रह्मनिष्ठ हों, वे इन गौओंको ले जायें।’ इसपर जब किसीका साहस न हुआ, तब याज्ञवल्क्यने अपने ब्रह्मचारीसे कहा-‘संमत्रवा। तू इन्हें ले जा।! अब तो सब ब्राह्मण बिगड़ पदे। उन्होंने कहा कि “क्या हम सबमें तुम्हीं उत्कृष्ट बद्यनिष्ठ हो।’ याज्ञवल्क्यने कहा कि ‘ब्रह्मनिष्ठको तो हम नम्म्कार करते हैं; हमें तो गायें चाहिये, इसलिये हमने इन्हे ले लिया है।’ अब विवाद छिड़ गया। ब्रह्मनिष्ठाभिमानी अश्वल, अऋलभ, कतंभाग, भुज्यु, ठउषस्त, कहोल, उद्दालक तथा नरमी आदिते कई प्रश्न किये। पर याज्ञवल्क्थने सभीका मंतीषजतक ठत्तर दे दिया। अन्तमें वाचक्रवी गार्गीने कड़ा पुजनीय ग्राह्मणणण। अब मैं इनसे दो प्रश्न करती हैँ। यदि ये मेरे उन प्रश्नोंका उत्तर दे देंगे तो समझ जी जित कि इनें कोई भी न जीत सकेगा।’ ब्राह्मणोंने