नवरात्रों में जहां एक ओर जप-तप, अनुष्ठान, दुर्गासप्तशती का विधिपूर्वक पाठ करना उत्तम है, वहीं दूसरी ओर एकान्त में एकाग्रचित होकर मौन धरण करके आत्म चिन्तन भी चमत्कारी सिद्घ होता है। आत्मचिन्तन, आत्मनिरीक्षण, आत्मावलोकन से इंसान आत्मदर्शन की ओर अग्रसर होता है।
इन महत्वपूर्ण क्षणों में आत्म जागृति के लिए जहां एक ओर स्वयं की समीक्षा करनी है, उस दौरान आपको अपनी आलोचना भी करनी पड़ेगी, पश्चाताप भी करना पड़ेगा, एक तपश्चर्या के वातावरण से भी गुजरना पड़ेगा। लेकिन इस सब के बीच अपनी प्रशंसा, अपने आपको शाबासी, अपनी पीठ भी अपने आप ठोकनी पड़ेगी।
साधरणतया इंसान की आदत होती है कि वह अपने बचाव के लिए अलग-अलग तरह से तर्क देता है। यहां तक कि एक हिंसक प्रवृत्ति वाला आदमी भी स्वयं को सही ठहराता है और दूसरे को गलत साबित करता है। किंतु जब आप इन पवित्र दिनों में आत्मचिंतन करेंगे तो जैसे घरों को, मन्दिरों को, दुर्गा माता को सजाने के लिए सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण और अन्य चीजें प्रयोग करते हैं, वैसे ही अपने जीवन को शुभ मंगलकारी सद्गुणों से सजाने की तैयारी करें। अपनी आत्मा का भी श्रृंगार करना चाहिए।
इसके लिए एक नियम है कि जैसे मन्दिर को अथवा किसी स्थान को सजाते संवारते हैं तो सबसे पहले वहां जो फालतू सामान है उसे वहां से हटाते हैं दीवार पर रंग-रोगन करने वाला आदमी भी पहले दीवार को रगड़-रगड़ कर साफ करता है। जो उसका फालतूपन है उसे दूर करता है।
इसलिए अपने मन मन्दिर को सजाने के लिए पहले अपनी बुराइयों को, दुर्गुणों को, फालतू सामानों को बाहर का रास्ता दिखाइए, अच्छाइयों को भीतर आने का निमंत्रण दीजिए, सदगुणों का स्वागत कीजिए। केवल एक द्वार खोलने से बात नहीं बनेगी, दोनों ओर की खिड़की दरवाजे खोलने पड़ेंगे।
ताकि एक तरफ से ताजी हवा अंदर प्रवेश करे और दूसरी ओर बासी गंदी वायु बाहर निकले। क्योंकि अच्छाईयां तभी असरदार सिद्घ होंगी, जब बुराइयां दूर होंगी। ज्ञान को अपनाईए, अज्ञान को भगाईए। समझदारी को ग्रहण कीजिए, मूर्खता का अंत कीजिए।