गजल निरगुन ८३
बाब ऐसी हे गंसार विहारी है, यह कलि व्यव |हारा ।
को अलख कहे प्रति, तिन का नाहिनी राहत हमारा ।
सुमति सुमाव सबे, कोई जाने हिरदय तत्त्व न बूझे।
निरजिव आगे सिरजिब, थापे लोचन कछुक न सूझे।
तजि अमरित विप काहै, अंज वे गोठी वादु ओगा।
चीरन को दिये पट सिंहासन, साहुहि कीन्हों ओटा।
कहै कबीर झुठी मिली, माया झूठी ठगहा व्यवहारा ।
तीन लोक भरपूर रह्या है, नाहीं है पतियारा ।।
तजि अमरित विप काहै, अंज वे गोठी वादु ओगा।
चीरन को दिये पट सिंहासन, साहुहि कीन्हों ओटा।
कहै कबीर झुठी मिली, माया झूठी ठगहा व्यवहारा ।
तीन लोक भरपूर रह्या है, नाहीं है पतियारा ।।