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बड़ों के सम्मान का शुभ फल – auspicious fruit of respect for elders

बड़ों के सम्मान का शुभ फल

कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव-पाण्डव दोनों दल युद्ध के लिये एकत्र हो गये थे। सेनाओं ने व्यूह बना लिये थे। वीरों के धनुष चढ़ चुके थे। युद्ध प्रारम्भ होने में क्षणों की ही देर जान पड़ती थी। सहसा धर्मराज युधिष्ठर ने अपना कवच उतारकर रथ में रख दिया। अस्त्र-शस्त्र भी रख दिये और रथ से उतरकर वे पैदल ही कौरव-सेना में भीष्म पितामह की ओर चल पड़े।

बड़े भाई को इस प्रकार शस्त्रहीन पैदल शत्रु सेना की ओर जाते देखकर अर्जुन, भीमसेन, नकुल और सहदेव भी अपने रथों से उतर पड़े। वे लोग युधिष्ठि के पास पहुँचे और उनके पीछे-पीछे चलने लगे। श्रीकृष्णचंद्र भी पाण्डवों के साथ ही चल रहे थे। भीमसेन, अर्जुन आदि बड़े चिन्तित हो रहे थे। वे पूछने लगे – महाराज! आप यह क्‍या कर रहे हैं?
युधिष्ठर ने किसी को कोई उत्तर नहीं दिया। श्रीकृष्णचंद्र भी सबको शान्त रहने का संकेत करके कहा – धर्मात्म युधिष्ठर सदा धर्म का ही आचरण करते हैं। इस समय भी वे धर्माचरण में ही स्थित हैं।
उधर कौरव-दल में बड़ा कोलाहल मच गया। लोग कह रहे थे-युधिष्टिर डरपोक हैं। वे हमारी सेना दैखकर डर गये हैं और भीष्म की शरण में आ रहे हैं। कुछ लोग यह संदेह भी करने लगे कि पितामह भीष्म को अपनी ओर तोड़ लेने की यह कोई चाल है। सैनिक प्रसन्नतापूर्वक कौरवों की प्रशंसा करने लगे।
युधिष्टिर सीधे भीष्म पितामह के समीप पहुँचे और उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले – पितामह ! हम लोग आपके साथ युद्ध करने को विवश हो गये हैं। इसलिये आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद दें।
भीष्म बोले – भरतश्रेष्ठ। यदि तुम इस प्रकार आकर मुझसे युद्ध की अनुमति न माँगते तो मैं तुम्हें अवश्य पराजय का शाप दे देता। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम विजय प्राप्त करो। जाओ, युद्ध करो। तुम मुझसे वरदान माँगो। पार्थ! मनुष्य धन का दास है, धन किसी का दास नहीं। मुझे धन के द्वारा कौरवों ने अपने वश में कर रखा है। इसी से मैं नपुंसकों की भाँति कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त तुम मुझसे जो चाहो, वह माँग लो। युद्ध तो मैं कौरवों के पक्ष से ही करूँगा।
युधिष्ठिर ने केवल पूछा-आप अजेय हैं, फिर आपको हम लोग संग्राम में किस प्रकार जीत सकते हैं ! पितामह ने उन्हें दूसरे समय आकर यह बात पूछने को कहा। वहाँ से धर्मराज द्रोणाचार्य के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम करके उनसे भी युद्ध के लिये अनुमति माँगी। आचार्य द्रोण ने भी वही बातें कहकर आशीर्वाद दिया। परंतु जब युधिष्ठिर ने उनसे उनकी पराजय का उपाय पूछा। तब आचार्य ने स्पष्ट बता दिया – मेरे हाथ में शस्त्र रहते मुझे कोई मार नहीं सकता। परंतु मेरा स्वभाव है कि किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनने पर मैं धनुष रखकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ। उस समय मुझे मारा जा सकता है।
युथिष्टिर द्रोणाचार्य को प्रणाम करके कृपाचार्य के पास पहुँचे। प्रणाम करके युद्ध की अनुमति माँगने पर कृपाचार्य ने भी भीष्मपितामह के समान ही सब बातें कहकर आशीर्वाद दिया।  किंतु अपने उन कुलगुरु से युधिष्ठिर उनकी मृत्यु का उपाय पूछ नहीं सके। यह दारुण बात पूछते-पूछते दुःख के मारे वे अचेत हो गये। कृपाचार्य ने उनका तात्पर्य समझ लिया था। वे बोले-राजन! मैं अवध्य हूँ। किसी के द्वारा भी मैं मारा नहीं जा सकता। परंतु मैं वचन देता हूँ कि नित्य प्रात:काल भगवान से तुम्हारी विजय के लिये प्रार्थना करूँगा और युद्ध में तुम्हारी विजय का बाधक नहीं बनूँगा। 
इसके पश्चात्‌ युधिष्टिर मामा शल्य के पास प्रणाम करने पहुँचे। शल्य ने भी पितामह भीष्म की बातें ही दुहराकर आशिष दी। परंतु साथ ही उन्होंने यह वचन भी दिया कि युद्ध में अपने निष्ठर वचनों से वे कर्ण को हतोत्साह करते रहेंगे। 
गुरुजनों को प्रणाम करके, उनकी अनुमति और विजय का आशीर्वाद लेकर युधिष्ठर भाइयों के साथ अपनी सेना में लौट आये। उनकी इस विनम्रता ने भीष्म, द्रोण आदि के हृदय में उनके लिये ऐसी सहानुभूति उत्पन्न कर दी, जिसके बिना पाण्डवों की विजय अत्यन्त दुष्कर थी।
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