भटकता मन
एक ग्राम में दो मित्र रहते थे। वे हमेशा साथ-साथ घमते फिरते, उठते-बैठते और विचार-विमर्श करते थे। एक दिन एक मित्र बोला चलो हम मंदिर में कथा सुनने चलते हें। दूसरा मित्र बोला–कथा में क्या रखा है? यह तो व॒द्धावस्था का काम है। चलो, हम लोग खेलते हैं। उससे कुछ आनन्द भी प्राप्त होगा। इस प्रकार दोनों का मत एक दूसरे से नहीं मिला।
इसलिए एक मित्र कथा सुनने चला गया और दूसरा खेलने चला गया। जो कथा सुनने गया था, वह कथा वाचक के सामने बैठा तो रहा, परन्तु उनका उपदेश उसकी समझ में नहीं आ रहा था। इसलिए उसका मन कथा में नहीं लगा। उसे अपना दूसरा मित्र याद आने लगा। वह सोचने लगा कि मैं भी खेलने चला गया होता तो अच्छा रहता। यह सोचकर उसे बड़ा खेद हुआ। यद्यपि वह कथा में ही बैठा रहा परन्तु उसका मन खेलने में ही लगा रहा।
इधर उसका दूसरा मित्र खेलने के लिए चला तो गया परन्तु उसे खेलने के लिए कोई दूसरा साथी नहीं मिला। अपितु दूसरों के साथ बातचीत में उनसे लड़ाई हो गई। वह सोचने लगा मैं यहाँ व्यर्थ में ही खेलने चला आया। कथा में ही अपने मित्र के साथ चला जाता तो अच्छा रहता। दो चार ज्ञान की बातें तो सुनने को मिलती। उसका मन खेल में न लग कर कथा में लगा था। इस प्रकार जहाँ शरीर और मन की क्रिया में भेद पड़ जाता है, वहाँ दो में से एक को भी सफलता प्राप्त नहीं होती ।