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manva bana madari re ke lobhi mann bana madari re

kabir

Kabir ke Shabd

मनवा बना मदारी रे,के लोभी मन बना मदारी रे।
इन्द्रिय वश रस फंस के खो दइ, उमरा सारी रे।।
आंख से देखा नहीं परखा, लगी तृष्णा भारी रे।
झूठ जाल में झूल रहा,लगी सच्ची खारी रे।।
लवभ बजाई डुगडुगी, करी काम सवारी रे।
लगी आपदा नहीं डाँटता, फिरै दर दर मारी रे।।
पित्र देवी गुगा पुजै,रहा ख्वारी रे।
जन्त्र मन्त्र पूजा आरती, खूब उतारी रे।।
कदे न आया सन्त शरण में, ना भर्म निवारि रे।
उलझ-२के ऐसा उलझा, ना ज्ञान विचारी रे।।
सद्गुरु ताराचंद कह समझ कंवर, करो सत्त सवारी रे।
शब्द नाव में बैठो, राधा स्वामी धाम उतारी रे।।
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