Kabir ke Shabd
अगम घर चलना है, कर निश्चय सत्तनाम।।
पवन सरीखे हैं नहीं रे, ना जल का प्रवेश।
चाँद गमन करता नहीं रे, बिन सूरज का देश।।
जोगी जंगम सेवड़ा रे, सन्यासी दुर्वेश।
मूँड़ मुंडाए भौं फिरे रे, ना पावै वो देश।।
राम खुदा दोनों नहीं रे, अचरज रूप अपार।
शेष महेश गणेश नहीं रे, ना दसों अवतार।।
धर्मिदास की विनती रे, कबीरा जी की सैन।
अलल पंख का गमन नहीं रे, निर्भय बाजै बैन।।