नरसिंह जयन्ती की कथा
राजा कश्यप के यहां दो पुत्र जन्में एक का नाम हिरण्याक्ष और दूसरे का हिरण्यकशिपु रखा गया। राजा के मरणोपरान्त बड़ा पुत्र हिरण्याक्ष राजा बना। परन्तु हिरण्याक्ष बड़ा ही क्रूर स्वभाव का था। वाराह भगवान ने उसे मौत के घाट उतार दिया। इसी का बदला लेने के लिये उसके भाई हिरण्यकशिपु ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिये कठोर तपस्या की और भगवान शिव से वर माँगा-”में न अन्दर मरूँ न बाहर, न दिन में मरूँ न रात में। न भूमि पर मरूँ न आकाश में, न जल में मरूँ न थल में। न अस्त्र से मरूँ न शस्त्र से, न मनुष्य के हाथों मरूँ न पशु द्वारा मरू। भगवान शिव “तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये।
यह वरदान पाकर वह अपने को अजर-अमर समझने लगा। उसने अपने को ही सारे राज्य में भगवान घोषित कर दिया। उसके अत्याचार इतने बढ़ गये कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। इसी समय उसके यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम प्रह्माद रखा गया। प्रह्नाद के बड़े हाने पर एक ऐसी घटना घटी कि प्रह्नाद ने अपने पिता को भगवान मानने से इंकार कर दिया। घटना यह थी कि कुम्हार के आबे में एक बिल्ली ने बच्चे दिये थे। आवे में आग लगाने पर भी बिल्ली के बच्चे जीवत निकल आये। प्रह्मद के मन में भगवान के प्रति निष्ठा भाव और बढ़ गया।
हिरण्यकशिपु ने अपने बेटे को हर तरह से समझाया कि मैं ही भगवान हूँ। परन्तु इस बात को मानने को वह तैयार न हुआ। हिरण्यकशिपु ने उसे मारने के लिये एक खम्भे से बाँध दिया और तलवार से वार किया। खम्भ फाड़कर भयंकर शब्द करते हुए भगवान नृसिंह प्रकट हुए। भगवान का आधा शरीर पुरुष का तथा आधा शरीर सिंह का था। उन्होंने हिरण्यकशिपु को उठाकर अपने घुटनों पर रखा और दहलीज पर ले जाकर गोधूलि बेला में अपने नाखूनों से उसका पेट फाड़ डाला। ऐसे विचित्र भगवान का लोकमंगल के लिये स्मरण करके ही इस दिन ब्रत करने का महात्म्य है।