संसार के सम्बन्ध भ्रममात्र हैं
शूरसेन प्रदेश में किसी समय चित्रकेतु नामक अत्यन्त प्रतापी राजा थे। उनकी रानियों की तो संख्या ही करना कठिन है, किंतु संतान कोई नहीं थी। एक दिन महर्षि अडिगरा राजा चित्रकेतु के राजभवन में पधारे। संतान के लिये अत्यन्त लालायित नरेश कों देखकर उन्होंने एक यज्ञ कराया और यज्ञशेष हविष्यान्न राजा की सबसे बड़ी रानी कृतधुति को दे दिया।
जाते-जाते महर्षि कहते गये-महाराज! आपको एक पुत्र तो होगा। किंतु वह आपके हर्ष तथा शोक दोनों का कारण बनेगा। महारानी कृतधुति गर्भवती हुईं। समय पर उन्हें पुत्र उत्पन्न हुआ। महाराज चित्रकेतु की प्रसन्नता का पार नहीं था। पूरे राज्य में महोत्सव मनाया गया। दीर्घकाल तक संतानहीन राजा को संतान मिली थी, फलतः उनका वात्सल्य उमड़ पड़ा था। वे पुत्र के स्नेहवश बड़ी रानी के भवन में ही प्राय: रहते थे।
पुत्रवती बड़ी महारानी पर उनका एकान्त अनुराग हो गया था। फल यह हुआ कि महाराज की दूसरी रानियाँ कुढ़ने लगीं। पति की उपेक्षा का उन्हें बड़ा दुःख हुआ और इस दुःख ने प्रचण्ड द्वेष का रूप धारण कर लिया। द्वेष में उनकी बुद्धि अंधी हो गयी। अपनी उपेक्षा का मूल कारण उन्हें वह नवजात बालक ही लगा। अन्त में सबने सलाह करके उस अबोध शिशु कों चुपचाप विष दे दिया। बालक मर गया। महारानी कृतधुति और महाराज चित्रकेतु ते बालक के शव के पास कटे वृक्ष की भाँति गिरे ही, पूरे राजसदन में क्रन्दन होने लगा।
रुदन-क्रन्दन से आकुल उस राजभवन में दो दिव्य विभूतियाँ पधारीं। महर्षि अडिगरा इस बार देवर्षि नारद के साथ आये थे। महर्षि ने राजा से कहा–‘राजन्! तुम ब्राह्मणों के और भगवान् के भक्त हो। तुम पर प्रसन्न होकर मैं तुम्हारे पास पहले आया था कि तुम्हें भगवान दर्शन का मार्ग दिखा दूँ. किंतु तुम्हारे चित्त में उस समय प्रबल पुत्रेच्छा देखकर मैंने तुम्हें पुत्र दिया। अब तुमने पुत्र-वियोग के दुःख का अनुभव कर लिया। यह सारा संसार इसी प्रकार दुःखमय है।
राजा चित्रकेतु अभी शोकमगन थे। महर्षि की बात का मर्म वे समझ नहीं सके। वे तो उन महापुरुषों की ओर देखते रह गये। देवर्षि नारद ने समझ लिया कि इनका मोह ऐसे दूर नहीं होगा। उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से बालक के जीव को आकर्षित किया। जीवात्मा के आ जाने पर उन्होंने कहा – जीवात्मन्। देखो, ये तुम्हारे माता-पिता अत्यन्त दुखी हो रहे हैं। तुम अपने शरीर में फिर प्रवेश करके इन्हें सुखी करो और राज्यसुख भोगो।
सबने सुना कि जीवात्मा स्पष्ट कह रहा है-‘देवर्ष! ये मेरे किस जन्म के माता-पिता हैं? जीव का तो कोई माता-पिता या भाई-बन्धु है नहीं। अनेक बार मैं इनका पिता रहा हूँ, अनेक बार ये मेरे। अनेक बार ये मेरे मित्र या शत्रु रहे हैं। ये सब सम्बन्ध तो शरीर के हैं। जहाँ शरीर से सम्बन्ध छूटा, वहीं सब सम्बन्ध छूट गया। फिर तो सबको अपने ही कर्मो के अनुसार फल भोगना है।
जीवात्मा यह कहकर चला गया। राजा चित्रकेतु का प्रोष्ठ उसकी बातों कों सुनकर नष्ट हो चुका था। पुत्र के शव का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करके वे स्वस्थ चित्त से महृषियो कि समीप आये। देव नारद ने उन्हें भगवान् शेष की आराधना का उपदेश किया, जिसके प्रभाव से कुछ काल में ही उन्हेँ शेष जी के दर्शन हुए और वे विद्याधर हो गये।