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आवत काज रहीम कहि – कवि रहीम -16

आवत काज रहीम कहि

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।

जीरन होत न पेड़ ज्यों, थामेः बरै बरेह।। 16।।
अर्थ—कवि रहीम कहते हैं कि विपत्ति के समय अपने घनिष्ठ मित्र-बांधवों का स्नेह काम आता है। जैसे–वृक्ष के जीर्ण (पुराने) होने पर लकड़ी के गट्ठे की मोटी रस्सी पेड़ को थाम लेती है और पेड़ की डालियों से निकलने वाली शाखाएं जमीन में जड़ पकड़ लेती हैं।
भाव–विपत्ति में सगे-संबंधी ही काम आते हैं। कवि ने यहां सगे-संबंधियों के महत्त्व को दर्शाया है। उनका कहना है कि जिस प्रकार वृक्ष के खोखला होने अथवा पुराना कमजोर पड़ जार पर मूंज की मोटी रस्सी उसे थामे रखती है और डालियों से निकलने वाली जटाएं धरती में धंसकर पुराने पेड़ को थामे रखती हैं, उसी प्रकार कष्ट का समय आने पर सगे-संबंधी और मित्रगण मदद करके उस व्यक्ति के जीवन को कष्टों से दूर रखते हैं। पराए व्यक्तियों से दुख के समय में कोई आशा नहीं की जा सकती। इस तरह सगे-संबंधियों को कभी नाराज नहीं करना चाहिए।
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