मनुष्य देह में भर रही, मिश्री आत्म रूप।
विषय वासना नमक ने, डाल दिया अंधकृप॥
दो चीटिंया थीं। उनमें से एक नमक के पर्वत पर रहती थी और दूसरी मिश्री के पर्वत पर रहती थी। एक दिन नमक के पर्वत वाली चींटी मिश्री के पर्वत पर रहने वाली चींटी के पास गई। दोनों ने एक दूसरे से राम-राम, एयाम-एयाम की। नमक के पर्वत वाली चींटी बोली- तुम बड़ी प्रसन्न दिखाई दे रही हो? और तुम्हारा शरीर भी खूब मजबूत दिखाई दे रहा है। ऐसी कौन सी वस्तु तुमने खाई है जिससे तुम प्रेम की वंशी बजा रही हो। दूसरी चींटी ने उत्तर दिया, बहिन मैं मिश्री के पर्वत पर रहती हूँ। इसलिए इच्छा होने पर जी भरकर मिश्री खा लेती हूँ। मिश्री के खाने से मैं सदा प्रसन्न रहती हूँ और कोई रोग भी इसके खाने से मेरे पास नहीं फटकता।
नमक वाली चींटी के मन में भी मिश्री खाने की इच्छा जाग्रत हो गई। वह झट से बोली- मुझे भी मिश्री के पर्वत पर ले चलो। मैं भी तुम्हारी तरह जी भरकर मिश्री खाना चाहती हूँ। मैंने आज तक कभी भी मिश्री नहीं खायी है। मिश्री वाली चींटी बोली–चलो, मेरे साथ मिश्री खाने चलो। जितनी मिश्री खाना चाहो पेट भरकर खा लेना। वहाँ पर कोई रोकने वाला भी नहीं है। इतना कहकर वह नमक वाली चींटी को अपने साथ लेकर पर्वत पर चढ़ गई और बोली–लो बहिन जी भरकर मिश्री खा लो।
नमक वाली चींटी मिश्री के पर्वत पर घूमघाम कर मिश्री वाली चींटी के पास आकर बोली–बहिन यहाँ पर तो मिश्री का नामो-निशान भी नहीं है। इस पर मिश्री वाली चींटी विचार करने लगी कि क्या कारण है कि मिश्री के पर्वत पर घूमने पर भी इस नमक वाली चींटी को मिश्री प्राप्त नहीं हुईं? मिश्री वाली चींटी बड़ी चतुर और बुद्धिमान थी। उसने नमक वाली चींटी की तरफ देखा तो से उस चींटी के मुँह में नमक की छोटी सी डली पड़ी दिखाई दी । वह नमक वाली चींटी से बोली तुम्हारे मुख में तो पहले से ही नमक की डली पड़ी है। तब तक तुम इस नमक की डली का त्याग नहीं करोगी, तब तक तुम्हें मिश्री की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसने चट से अपने मुख से नमक की डली को निकाल कर फेंक दिया। अब वह दुबारा से मिश्री के पर्वत पर गई। वह जी भरकर मिश्री को खाने लगी।
साथियों! हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि अन्तःकरण रूपी मिश्री भरी पड़ी है। विषय वासना रूपी नमक की डली को मुख में रख कर मिश्री के पर्वत पर घूमने से हमको आत्मानन्द रूपी मिश्री की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यदि तुम विषय वासना रूपी नमक की डली को फेंककर मिश्री के पर्वत पर घूमोगे तो तुम्हें अवश्य ही आत्मानन्द रूपी मिश्री मिलेगी, इसमें जरा सा भी सन््देह नहीं है।
आत्मानन्द की प्राप्ति हो जाने के पश्चात मोक्ष पद की भी प्राप्ति हो जायेगी । हमारा यह कथन नहीं है कि संसार हमारे बाल-बच्चे, स्त्री, माता, पिता, बहिन आदि सब नाशवान और मतलब के हैं। ठीक है इतना होते हुए भी और इन सबको अपनाते हुए भी गृहस्था श्रम के धर्म का पालन करते हुए भी आत्मानन्द की साधना के साथ प्राप्त कर सकते हैं। जो व्यक्ति यह कहते हैं कि गृहस्थ आदि परिवार और यह संसार मतलब का और नाशवान है, इसको त्याग दो और केवल आत्मानन्द् की प्राप्ति में लग जाओ तो यह कथन मिथ्या है। देखा जा रहा है कि जो मनुष्य संसार त्याग करने का उपदेश करते हैं वही लोग इस संसार से ऐसे चिपटे रहते हैं कि जैसे चन्दन के पेड़ से सर्प लिपटे रहते हैं। शक्तिशाली आत्मा और विजेता तो वही है जो संसार में रहते हुए और गृहस्थ का पालन करते हुए आत्मानन्द एवं परमपिता, परमानन्द, परमेश्वर मंगलमय अखण्ड भूमण्डलाकार की प्राप्ति कर लेते हैं।