डिप्टी का बाप
धन्य-धन्य वर दायिनी, भारत की सरकार।
थारी कृपा कटाक्ष से, डिप्टी होत चमार॥
एक शहर में नत्थू नाम का चर्मकार रहता था। वह अपने खानदानी पेशे के कारण चमड़े की वस्तुए बनाने में बहुत ही कुशल कारीगर था। उसके एक बेटा था जो पढ़ लिखकर एक शहर में डिप्टी कलक्टर बन गया था। लड़के को रहने के लिए कोठी मिली थी। वह कीमती सूट पहनता था। पाँव में जूता भी कीमती ही पहनने लगा था। वह प्रतिदिन अपनी दाढ़ी बनाने लगा था। उसका गोल गोल चेहरा टमाटर के समान चिकना था। उसने एक एंग्लोइण्डियन मेम से दोस्ती कर ली थी। उसने उसको अपने पास ही कोठी में रख लिया था।
अब वह मक्का की रोटी छोड़कर केक बिस्कुट का प्रयोग करने लगा था। दिन में कई-कई बार चाय पीने लगा था। रात्रि में लेडी के साथ ब्रान्डी पीना उसका एक कर्त्तव्य सा हो गया था। उसने रोटी बनाने के लिए एक रसोइया रख लिया था। कहने का अभिप्राय यह है कि डिप्टी साहब डिप्टी रूपी कुँए में ऐसे गर्क हुए कि उन्होंने अपनी पत्नी, बाल-बच्चों और माता-पिता को भी तिलांजलि दे दी। गाँव में इनके माता-पिता, स्त्री, बच्चे भूखे मरने लगे।
दो-दो दिन तक चूल्हा नहीं जलता था, कर्ज कोई देता नहीं था, बेटा खबर नहीं लेता था। घर की ऐसी हालत देखकर नत्थू ने विचार किया कि बेटे के पास चलना चाहिए। वह तो शहर का डिप्टी कलक्टर है। उससे कुछ धन ले आना चाहिए। यह सोचकर नत्थू ने एक हाथ में बिस्तर लिया तथा साथ में थोड़ा सा घी लेकर चल पड़ा। जब वह डिप्टी की कोठी के द्वार पर पहुँचा तो बेटे ने अपना मुँह छिपाते हुए उन्हें एक कमरे में ठहरा दिया। नत्थू बेटे की इस हरकत को देखकर मन ही मन में अनेक विचार कर ही रहा था कि इतने में उस मेम ने आकर बूढ़े के सामने डिप्टी कलक्टर से पूछा यह बूढ़ा कौन है?
लड़के ने बताया कि यह हमारे गाँव का बढ़ई है। हमारे घर से थोड़ा घी लाया है। लड़के की यह बात सुनकर बूढ़ा बाप क्रोध में भर गया और बोला -हे भगवान्! यह कैसा कलियुग आ गया है। बेटे ने अंग्रेजी पढ़ी सर पर एक चुडैल आ पड़ी, इतना कहकर बूढ़े ने अपने बेटे की तरफ संकेत कर पुनः कहा -है खप्त हो गया आपको भूले हो अपने बाप को, उन दिनों को बेटा याद करो जब तुम गाँव में थे। मैंने तुमको पाला पोसा एवं पढ़ा लिखाकर बड़ा किया और अब तू डिप्टी कलक्टर होकर अपने बाप को इस आवारा औरत के सामने गाँव का बढ़ई बता रहा है। धिक्कार है तेरी शिक्षा एवं डिप्टी कलक्टर पर!
भाइयों! वर्तमान शिक्षा-दीक्षा ने हमारे त्रिकालदर्शी ऋषि-महर्षियों के पवित्र आदर्श की जड़ों को खोखला कर दिया है। लार्ड मैकाले ने अपने पिता को जो पत्र लिखा था वह गलत नहीं लिखा था। लार्ड मैकाले ने भारतीयों के संबंध में जो कुछ भी पत्र में लिखा था, वह सोलह आने ठीक उतरा। लार्ड मैकाले का पत्र यह था-
अर्थात्- वह व्यक्ति हिन्दू कभी नहीं रहता जो अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करता है और वह अपने धर्म को छोड़ बैठता है या अपने धर्म से हार्दिक सहानुभूति नहीं रखता और लोग पालिसी से ऐसा करते हैं कि वह ईश्वर को नहीं मानते तथा कुछ ईसाई धर्म ग्रहण कर लेते हैं। हम एक जत्था बनाना चाहते हैं जो हमारे तथा उन लाखों मनुष्यों के मध्य में जिन पर हम शासन करते हैं, अनुवादकों का कार्य कर सकें। यह जत्था रक्त तथा रंग में हिन्दुस्तानी हो किन्तु आचार और व्यवहार, चरित्र, चिन्ता आदि में अंग्रेज होना चाहिए।