सन्त
तुलसी सन्त सुअम्ब तरु फूल फबहिं परहेत
| इतते वे पाहन हने उतते वे फल देत।
एक दिन की बात है कि एक सन्त महात्मा गंगा नदी के किनारे बैठकर नित्य कर्म कर रहे थे। अचानक एक बिच्छू ने महात्मा को डंक मार दिया। महात्मा जी ने उसे हटा दिया और फिर से अपने पूजा-पाठ में मग्न हो गये। बिच्छू फिर से महात्मा जी के पैर पर चढ़ गया और उनकी जाँघ पर डंक मार दिया। महात्माजी ने उस बिच्छू को फिर से हटा दिया और पूजा-पाठ में लग गये। बिच्छू पुन: महात्माजी के शरीर पर चढ़ गया और दूसरी जगह डंक मार दिया। महात्माजी ने फिर उसे अपने शरीर से हटा दिया। उपरोक्त घटना को एक व्यक्ति बड़े कौतूृहल से देख रहा था। उसने महात्माजी से कहा–महाराज! जब यह आपको बार-बार डंक मार रहा है तो आपने उसे समाप्त क्यों नहीं कर दिया। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि ” शठे शाठयम समाचरेत ” महात्माजी ने उत्तर दिया-भाई ! यह तो बिच्छ का स्वभाव है। जब वह अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है तो फिर हम अपना स्वभाव क्यों छोड़ दें। सन्त आदमियों का स्वभाव है क्षमा करना। हम अपने स्वभाव को कैसे छोड़ सकते हैं? जिस प्रकार अग्नि का स्वभाव है वस्तुओं को जलाना, उसी प्रकार इसका स्वभाव है डंक मारना और सन्त आदमियों का स्वभाव होता है क्षमा करना।