वज्र मूर्खता का परिचय”
मातृवत् परदारेषु, -परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्व भूतेषु, य: पश्यति सपंडितः ॥
मथुरा शहर में एक शास्त्री जी एक पाठशाला में अपने । शिष्यों को उपरोक्त एलोक पढ़ा रहे थे और बता रहे थे-। ‘ बच्चों! पराई स्त्री को माँ, पराई वस्तु को मिट्टी समझना ‘ ‘ चाहिए।एक लड़का कुछ उदण्ड था। जब वह पाठशाला से ‘ पढ़कर घर जा रहा था तो रास्ते में उसे एक औरत दिखाई , क् दी। उसे पढ़ा हुआ पहला पाठ स्मरण हो आया और विचार ‘ ‘ करने लगा कि मैं अपनी माँ को पीटता हूँ। बस फिर क्या । था? उसने उस औरत के चार डण्डे मार दिये। क् अब वह आगे गया तो उसने एक हलवाई की दुकान | पर मिठाई खाई और उसे ध्यान आया कि “पर द्र॒व्येषु । ‘ लोष्ठव॒त्” दूसरे की वस्तु मिट्टी की तरह होती है। उसने । सोचा कि हलवाई को मिट्टी के व्यर्थ में पैसे क्यों दिये | जायें? इसलिए हलवाई के बराबर पैसे माँगने पर भी उसने । ‘ कुछ नहीं दिया। …. | ( वह स्वयं शराब पिया करता था तो विचार करने ‘ ) लगा कि आत्मवत् सर्व भूतेषु अर्थात् सभी प्राणियों को । । अपनी तरह समझना चाहिये। अत: जैसे मैं वैसे ही गुरुजी। | ‘ उसने शराबखाने से बोतल लाकर गुरुजी को पिलाना । प्रारम्भ कर दिया। गुरुजी ने उससे कहा–ेरे मूर्ख! यह ‘ क्या करता है? वह बोला–गुरुजी! अभी तो आपने ही | ‘ पढ़ाया था कि “आत्मवत् सर्व भूतेषु” गुरुजी बोले-तू , तो मूर्ख ही रहा। इसका अर्थ यह नहीं होता है। इतने में वह ( स्त्री और हलवाई भी इस बच्चे की शिकायत करने आ | गये। गुरुजी ने फिर अपने शिष्य से कारण पूछा। शिष्य ने , वही श्लोक दोहरा दिया। गुरुजी ने समझ लिया कि यह ( तो वज़ मूर्ख है। ।