Search

कबीर भजन उपदेश-१०८

कबीर भजन उपदेश-१०८
प्रेम का सागर बांका रे। टेक
वह जानता है भयो शशि प्रेम में अर्पण जाका रे।
यह घर तो है सां का खाला का घर नाहिं।
शीश काट चरणन धरै तब पैठे घर माहि।
देखि कर मन मां के रे। प्रेम०
प्रेम का प्याला जो पिये शीश दक्षिणा देयं ।
लोभी शीश न दे सके नाम प्रेम का लेय।
नहीं वह प्रेमी का रे। प्रेम०.
प्रेम न बाड़ी उपजे प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा प्रजा जो रुचे सिर देय लै जाय ।
मिले तोहि मुक्ति का नाम रे। प्रेम०
जोगी जंगल में खड़ा संन्यासी दरवेश |
प्रेम बिना पहुंचा नहीं दुर्लभ सतगुरु देश ।
शेष जेहि वरण थाका रे। प्रेम०
प्रेम प्याला बाम का चाख अधिक रसाल।
कबीर पाना कठिन है मांगत रहत कलाल।
क्या वो तेरा बाबा काका रे। प्रेम०
Share this article :
Facebook
Twitter
LinkedIn

Leave a Reply