“आधुनिक सध्या
एक जज ने अपनी बेटी को खूब पढ़ाया और अपने रिश्तेदारों में से एक अच्छे बी०ए० पास लड़के के साथ विवाह कर दिया। कुछ समय बाद दामाद अपनी ससुराल में आया। शाम को संध्या करने का समय था।जज ने नौकर से कहा–मेरे आसन के साथ जमाई बाबू का भी आसन लगा दो। नौकर ने आसन बिछा दिया और अन्य सामान के साथ पंचपात्र में जल भरकर रख दिया, दोनों व्यक्ति संध्या हेतु बैठ गये। जज साहब ने संध्या प्रारम्भ कर दी। जमाई बाबू को तो धर्म छू भी नहीं गया था। उसने तो केवल अंग्रेजी के उपन्यास पढ़े थे और सिनेमा देखा करते थे। तब वे संध्या के बारे में क्या जान सकते थे। अपनी पोल खुलने के डर मे वे झूँठ मूठ होट हिलाकर ससुरजी का अनुसरण करने का नाटक कर रहे थे। जज साहब समझ गये कि जमाई गजा अपनी अज्ञानता पर पर्दा डाल रहे हैं। उन्होंने संध्या के अन्त में जमाई राजा की परीक्षा के लिए ‘“अल्लाहो अकबर! कहकर बाँग लगाई। संध्या के बाद ऐसा करने का चलन” होगा? यह सोचकर जमाई राजा ने भी सियार को तग्ह चिल्लाना प्रारम्भ किया । उसकी आवाज सुनकर पास पड़ौस के लोग दौड़ कर आये | उन लोगों ने हँसकर कहा -‘ जमाई राजा पढ़े जरूर हैं, पर गुना नहीं है।” विदेशी भाषा पढ़कर स्वधर्म गंवाये हुए जमाई साहब शरमा गये।
इस दृष्टांत से यह शिक्षा मिलती है कि कोई मनुष्य चाहे कोई भी भाषा पढ़े, जहाँ चाहे घूमे-फिरे लेकिन अपना धर्म कर्म नहीं भूलना चाहिए।