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“धर्म राज की धार्मिकता”

“धर्म राज की धार्मिकता”

महाराज युधिष्ठिर को जब पता चला कि श्री कृष्ण चन्द्र ने अपनी लीला का संवरण कर लिया है और यादव परस्पर के कलह से नष्ट हो गये हैं तो उन्होंने अर्जुन के पौत्र परीक्षित का राज तिलक करके स्वयं सब वस्त्र और आभूषण उतार दिये। मौन व्रत धारण कर, केशों को खोलकर सन्यास लेकर वे राजभवन से निकले और उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। उनके शेष चारों भाइयों तथा द्रोपदी ने भी उनका अनुसरण किया।
धर्मराज युधिष्ठिर ने सब मोह माया को त्याग दिया था। उन्होंने भोजन त्याग दिया था और जल का भी त्याग कर दिया था। उन्होंने विश्राम भी नहीं किया। वे बिना किसी ओर देखे एवं बिना रुके बराबर आगे बढ़ते रहे। इस प्रकार वे चलते-चलते हिमालय बद्रीनाथ से आगे बढ़ गये। उनके चारों भाई और पत्नी द्रोपदी भी बराबर उनके पीछे चलती रहीं।  
सत्यपथ पार हुआ और स्वर्गारोहण की दिव्य भूमि आयी । द्रोपदी, नकुल, सहदेव, अर्जुन ये क्रमशः एक-एक करके गिरते रहे। जो गिरता था, वह वहीं रह जाता था। उस हिम प्रदेश में गिरकर शरीर तत्काल हिम-समाधि पा जाता है। उस पावन प्रदेश में प्राण त्यागने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। युधिष्ठिर न रुकते थे और न गिरते हुए भाइयों की ओर देखते ही थे।  राग-द्वेष से दूर हो चुके थे। अन्त में भीम सेन भी गिर गये। युधिष्ठिर जब स्वर्गारोहण के उच्चतम शिखर पर पहुँचे तब भी वे अकेले नहीं थे क्योंकि एक कुत्ता उनके साथ था। यह कुत्ता हस्तिनापुर से ही उनके पीछे-पीछे चल रहा था। उस शिखर पर पहुँचते ही स्वयं देवराज इन्द्र विमान में बैठकर आकाश से वहाँ उतरे। उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर का स्वागत करते हुए कहा–आपके धर्माचरण से स्वर्ग अब आपका है। विमान में बैठिये। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और पली द्रोपदी को भी स्वर्ग ले चलने की प्रार्थना की। देवराज इन्द्र ने कहा–वे तो पहले ही वहाँ पहुँच चुके हैं। युधिष्ठिर ने कहा–इस कुत्ते को भी विमान में बैठा लो। इन्द्र बोले–आप धर्मराज होकर ऐसी बातें क्‍यों कर रहे हैं? स्वर्ग में कुत्ते का प्रवेश नहीं हो सकता। यह अपवित्र प्राणी मेरे दर्शन कर सका, यही बहुत है। युधिष्ठिर बोले–यह मेरे आश्रित है। मेरी भक्ति के कारण ही हस्तिनापुर से इतनी दूर मेरे साथ आया है। आश्रित का त्याग करना अधर्म होता है। इस आश्रित का त्याग मुझे अभीष्ट नहीं। इसके बिना मैं स्वर्ग में नहीं जाना चाहता। इन्द्र उत्तर दिया–राजन्‌! स्वर्ग की प्राप्ति पुण्यों के फल से होती है। यह पुण्य आत्मा होता तो इस अधम योनि में क्‍यों जन्म लेता?
युधिष्ठिर ने कहा-मैं अपना आधा पुण्य इसे अर्पित करता हूँ। 
“धन्य हो, धन्य हो, युधिष्ठिर तुम! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। 
युधिष्ठिर ने देखा कि कुत्ते का रूप त्यागकर साक्षात्‌ धर्म देवता उनके सम्मुख खड़े होकर उन्हें आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं। 
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