संस्कार क्या हैं?
भारतीय संस्कृति में संस्कार का साधारण अर्थ किसी दोषयुक्त वस्तु को दोषरहित । करना हे। अर्थात् जिस प्रक्रिया से वस्तु को दोषरहित किया जाये उसमें अतिश्य का
आधान कर देना ही ‘संस्कार’ है। संस्कार मनःशोधन की प्रक्रिया हैं। गौतम धर्मसत्र के अनुसार -संस्कार उसे कहते हैं, जिससे दोष हटते हैं ओर गुणों की वृद्धि होती हे।
हमारे ऋषि मुनि यह मानते थे कि जन्म जन्मांतरों की वासनाओं का लेप जीवात्मा पर रहता है। पूर्व-जन्म के इन्हीं संस्कारों के अनुरूप ही जीव नया शरीर धारण करता हे. अर्थात् जन्म लेता है ओर उन संस्कारों के अनुरूप ही कर्मों के प्रति उसकी आसक्त होती है। इस प्रकार जीव सर्वथा संस्कारों का दास होता है।
मीमांसा दर्शनकार के मतानुसार-कर्मबीज संस्कार:। अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज हे तथा “तन्निमित्ता सृष्टि: ‘ अर्थात् वही सृष्टि का आदि कारण
है।
प्रत्येक मनुष्य का आचरण उसके पूर्वजन्मों के निजी संस्कारों के अतिरिक्त उसके वर्तमान वंश या कुल के संस्कारों से भी प्रभावित रहता है। अतः संस्कारों का उद्देश्य पहले से उपस्थित गुणों, अवगुणों का परिमार्जन करके विद्यमान गुणों एवं योग्यताओं को स्वस्थ रूप से विकास का अवसर देना है।
मानव जीवन के सभी प्रकार के कर्मों का कारण ‘मन’ ही है। वह सभी अच्छे बुरे कर्म मन से ही करता है। बार बार किसी कर्म को करने से उसकी विशेष प्रकार की आदतें बन जाती हैं ये.ही आदतें मन के गहरे तल पर जमा रहती हैं, जो मृत्यु के बाद मन के साथ ही अपने सूक्ष्म शरीर में बनी रहती है और नया शरीर धारण करने पर अगले जन्म में उसी प्रकार के कर्म करने की प्रेरणा बन जाती हैं। इन्हीं को ‘संस्कार’ कहा जाता हे।
ये संस्कार प्रत्येक जन्म में संग्रहीत होते चले जाते हें, जिससे इनका एक विशाल भंडार बन जाता है, जिसे ‘संचित कर्म’ कहा जाता है। इन संचित करो का कुछ ही भाग एक योनि (जीवन) में भोगने के लिए उपस्थित रहता है, जो वर्तमान जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। इन कमों से पुनः नये संस्कार बनते हैं। इस प्रकार इन संस्कारों कौ एक अंतहीन श्रृंखला बनती जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
संस्कारों की परंपरा का व्यक्ति पर अद्वितीय प्रभाव माना जाता है। संस्कारों के समय किए जाने वाले विभिन्न कर्मकांडों, यज्ञ, मंत्रोच्चारण आदि की प्रक्रिया विज्ञान के पूरी तरह असंदिग्ध है। कर्मों के साथ साथ अच्छे बुरे संस्कार भी बनते रहते हैं। अतः संस्कार प्रणाली की अधीन मनुष्य किसी बाते को सामान्य उपदेशों, प्रशिक्षणों अथवा परामशों द्वारा दिए गए निर्देशों की
– तुलना में अनुकूल वातावरण में जल्दी सीखता है। संस्कारों की संख्या अलग अलग विद्वानों ने अलग अलग बताई है।
गौतमस्मृति में 40 संस्कारों का उल्लेख किया गया हे चत्वारिशित्संस्काए: संस्कृत:। कहीं कहीं 48 संस्कारों का उल्लेख मिलता है। महर्पि अंगिरा न॑ 25 संस्कार बताए हैं। दस कर्मपद्धति के मतानुसार संस्कारों की संख्या 10 मानी गई है, जबकि महर्षि वेदव्यास ने अपने ग्रंथ व्यासस्मृति में प्रमुख सोलह (षाडेश) संस्कारों का उल्लेख किया हैगर्भाधानं पुंसन सीमंतोी जाकर्म चा। नामक्रियानिष्क्रमणे5न्नाशनं वपनक्रिया॥ कर्णवेधो ब्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधि:। केशांतः स्नानमुद्राहो विवाहग्निपरिग्रह :॥ त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षाडेश _ स्पृताः। –
वेद का कर्म मीमांसादर्शन 16 संस्कारों को ही मान्यता प्रदान करता हें। आधुनिक विद्वानों ने इन्हें सलल और कम खर्चीला बनाने का प्रयास किया है, जिससे अधिक से अधिक लोग इनसे लाभ उठा सकें। इनमें प्रथम 8 संस्कार प्रवृत्तिमार्ग में एवम् शेष 8 मुक्तिमार्ग के लिए उपयोगी हैं। प्रत्येक संस्कार काअपना महत्व, प्रभाव ओर परिणाम होता है। यदि विधि विधान से उचित समय आरे वातावरण में इन संस्कारों को कराया जाए, तो उनका प्रभाव असाध 7रण होता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को ये संस्कार अवश्य करने चाहिए।